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चंद्रणखा द्वारा रावण को सीता के प्रति आकर्षित करना
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ९९ 'हो न हो, इन्हीं पदचिह्नों वाले पुरुष ने मेरे पुत्र को मारा है।' यह निश्चय करके वह उन चरण चिह्नों का अनुसरण करती हुई चल पड़ी। थोड़ी ही दूर गयी होगी कि उसने एक पेड़ के नीचे नयन मनोहारी राम को सीता और लक्ष्मण के आगे बैठे हुए देखा । श्रीराम को देखते ही उनके रूप पर मोहित होकर वह कामक्रीड़ातुर हो गयी। 'शोक की अधिकता के समय भी कामिनियों में काम की अभिलाषा कुछ अजब ही होती है।' उसने अपना रूप अत्यंत मनोहर बना लिया | और राम से अपने साथ रतिक्रीड़ा करने की प्रार्थना की।' उसकी निकृष्ट प्रार्थना पर मुस्कराते हुए राम ने कहा-' - 'मेरे तो एक पत्नी है, तुम लक्ष्मण की सेवा करो।' अतः वह लक्ष्मण के पास गयी और उसके सामने भी इसी तरह की | | प्रार्थना करने लगी । लक्ष्मण ने उत्तर दिया- 'तुम जैसी आर्यनारी के लिए ऐसी प्रार्थना शोभा नहीं देती। मैं तुम्हारी बात को कदापि स्वीकार नहीं कर सकता।'
प्रार्थनाभंग और पुत्रवध से अत्यंत कुपित होकर सीधी अपने पति खर के पास पहुंची; और उससे कहा- 'मेरे पुत्र को लक्ष्मण ने मार डाला है। उसका उससे अवश्य बदला लेना चाहिए। पत्नी की बात से उत्तेजित होकर खर चौदह | हजार विद्याधरों को साथ लेकर हाथी की तरह सदलबल वहां आ पहुंचा। उसने श्रीराम पर एकदम धावा बोल दिया । | लक्ष्मण ने तत्काल ही श्री राम से विनति की - बडे भाई ! मेरे रहते आप स्वयं का ऐसों के साथ युद्ध करना उचित नहीं है, आप मुझे इनके साथ युद्ध करने की आज्ञा दीजिए। इस पर श्रीराम ने कुछ सोचकर कहा - 'अच्छा, वत्स! तेरी प्रबल | इच्छा है तो तूं खुशी से जा और युद्ध में विजय प्राप्त कर । परंतु अगर तुम पर कोई विशेष संकट आ पड़े तो मुझे बुलाने | के लिए सिंहनाद कर देना । इस प्रकार हितशिक्षा देकर लक्ष्मण को भेजा । लक्ष्मण भी अपना धनुष्य लेकर श्रीराम की | आज्ञा से युद्धस्थल पर आ डटा । और आमने-सामने की लड़ाई में अपने पैने तीरों से खर के सैनिकों को उसी तरह | मार गिराने लगा, जैसे गरुड़ सर्पों का मार गिराता है। युद्ध बढ़ता जा रहा था। जय-पराजय का कोई पता नहीं लग रहा था। इसी बीच चंद्रणखा अपने पति के पक्ष में सैनिकों की वृद्धि के लिए अपने भाई रावण के पास पहुंची। रावण को | उत्तेजित करने के लिए उसने कहा- 'भैया ! तुम्हें पता है, दंडकारण्य में हमारी जाति की अवगणना करने वाले राम और | लक्ष्मण नाम के दो मनुष्य आये हुए हैं। उन्होंने तुम्हारे भानजे को यमलोक भेज दिया है। इस बात को सुनकर उसका | बदला लेने के लिए तुम्हारे बहनोई अपने छोटे भाई के साथ सेना लेकर लक्ष्मण के साथ युद्ध करने गये हैं। युद्ध अभी | जारी है। अपने छोटे भाई के पराक्रम के गर्व से और अपनी शक्ति के गर्व से फूलकर राम अपनी पत्नी सीता के साथ | विलास करने के लिए अपने स्थान पर रह गया है। उस सीता का रूप, लावण्य इतना सुंदर है कि देवी, नागकुमारी | या कोई मानुषी उसकी होड़ नहीं कर सकती। तीनों लोक में उसके सरीखा रूप मैंने किसी दूसरी स्त्री का नहीं देखा । | इतना ही नहीं, सारे देवों और असुरों की देवांगनाओं के रूप से भी बढ़कर उसका रूप है। वाणी से उसका बयान करना भी अशक्य है। राजन्! समुद्रपर्यंत इस पृथ्वी पर जितने भी रत्न हैं, वे सब तुम्हारे अधिकार के हैं। अतः बंधो ! जिसकी रूप संपदा अपलकनेत्रों से टकटकी लगाकर देखते रहें, ऐसी मनोहारिणी आकृति वाले स्त्रीरत्न को अगर तुम ग्रहण नहीं कर सके तो रावण ही क्या हुए?' चंद्रणखा की बातों से उत्तेजित होकर रावण तत्काल पुष्पकविमान में बैठा और आज्ञा | दी कि हे विमानराज ! जहां जानकी हो, वहां मुझे शीघ्रातिशीघ्र पहुंचा दे ।' विमान भी मनोवेग के समान उड़ता हुआ बहुत तेजी से जहां जानकी थी, वहां पहुंचा। अग्नि से डरकर जैसे सिंह दूर खड़ा रहता है, वैसे ही उग्रतेजस्वी राम | को देखकर रावण डरकर दूर खड़ा रहा। वह मन ही मन सोचने लगा- इस प्रकार श्री राम को जीतकर सीता का हरण | करना उतना ही कठिन है, जितना कि एक ओर सिंह से मुकाबला करना और दूसरी ओर पानी से लबालब भरी नदी | को पार करना। रावण ने अवलोकनविद्या का स्मरण किया। उसी समय वह किंकरी की तरह हाथ जोड़कर सामने आकर खड़ी हो गयी । रावण ने तत्काल उसे आज्ञा दी - सीता का अपहरण करने के लिए आज तुम मुझे सहायता दो। | अवलोकनविद्यादेवी ने कहा- सर्पराज के मस्तक का मणि ग्रहण करना आसान है, मगर राम के साथ बैठी हुई सीता को ग्रहण करना कठिन है, ऐसी हालत में तो इसे साक्षात् देव या असुर भी नहीं ग्रहण कर सकते । इसको ग्रहण करने का | सिर्फ एक ही उपाय है- लक्ष्मण के समान सिंहनाद किया जाय, जिसे सुनकर राम लक्ष्मण की सहायता के लिए दौड़
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