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मूलदेव की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ७२
तो मेरे नाटक करने का समय हो गया है, मुझे जाना है, अगर तुम चाहो तो तुम भी तैयार हो जाओ।' यों कहकर | विश्वभूति चला गया।
तत्पश्चात् देवदत्ता ने अपनी दासी को आदेश दिया कि 'हम दोनों को स्नान करना है। अतः कलापूर्वक अंगमर्दन | करने वाले किसी अंगमर्दक को बुला लाओ।' यह सुनकर धूर्तराज ने कहा - सुनयने ! दूर जाने की जरूरत नहीं, मैं स्वयं अंगमर्दन कर सकता हूं। वह बोली- 'क्या इस कला को भी जानते हो? उसने कहा- 'मैं नहीं जानता, पर मैं इसके जानकार को जानता हूं, जिनकी सेवा में में रहा हूं।' देवदत्ता के आदेश से तुरंत शतपाक तेल आ गया। अतः मायावी | वामन तेल मालिश करने लगा। उसने वारांगना के अंग में स्थान के उपयुक्त कोमल, मध्यम और कठोर हाथों से ऐसा | मर्दन किया कि उसके शरीर में स्फूर्ति और शक्ति के अतिरिक्त सुखानुभव भी हुआ। देवदत्ता उसकी कला से प्रभावित | होकर मन ही मन सोचने लगी- ओहो ! इसने तो सभी कलाओं में निपुणता प्राप्त की है। इतनी कला हर एक व्यक्ति में नहीं हो सकती। हो न हो, यह कोई असाधारण व्यक्ति है।' उसके कलानैपुण्य से आकर्षित देवदत्ता भावावेश में आकर सहसा उसके चरणों में गिर पड़ी। कहने लगी- 'स्वामिन्! हमे विश्वास है कि गुणों से आप कोई उत्तम पुरुष है। परंतु आप हमसे भी कपट करके अपने असली रूप को छिपाते क्यों है? कृपा करके आप अपने आपको खुल्लमखुल्ला प्रकट करें, हमें अपने असली रूप से वंचित न करें। देव भी भक्तजनों के आग्रह से प्रत्यक्ष दर्शन देते है।' यह सुनकर | मूलदेव ने मुंह से जादुई गोली बाहर निकाली और नट के सरीखा अपना रूप बताया । देवदत्ता विस्मयफारित नेत्रों से | कामदेव के समान उसका अद्भुत रूप, लावण्य और मनोहर अंगोपांग देखकर बोली- धन्यवाद ! इस प्रकार के सुंदर शरीर के रूप में दर्शन देकर आपने मुझ पर बड़ा उपकार किया। स्नान के योग्य एक तौलिया देकर अनुरक्त, देवदत्ता उसके अंग पर अपने हाथ से प्रीतिपूर्वक तेलमालिश करने लगी। फिर उसके मस्तक पर सुगंधित पदार्थ मला । तदनंतर | दोनों ने गर्म जल की धारा उड़ेलकर स्नान किया। स्नान करने के पश्चात् मूलदेव ने देवदत्ता द्वारा दिये हुए रेशमीवस्त्र | पहने और दोनों ने एक साथ ही सुपाच्य, सुगंधित पदार्थमिश्रित, स्वादिष्ट भोजन किया। दोनों की मैत्री प्रगाढ़ होती गयी। और वे प्रायः प्रतिदिन एकांत में कला के रहस्यों की चर्चा करते थे । इस प्रकार काफी अर्सा बीत गया। एक दिन मूलदेव को प्रसन्नमुद्रा में जानकर देवदत्ता कहने लगी- 'नाथ ! आपने अपने लोकोत्तर गुणों से मेरा हृदय हरण कर लिया है। अतएव मेरी प्रार्थना है कि सुंदर! जैसे आपने मेरे हृदय में निवास कर लिया है, वैसे ही इस घर में पधारकर सदा के लिए निवास कीजिए।' इस पर मूलदेव बोला- 'मेरे सरीखे परदेशी और निर्धन के साथ मोह-ममत्व करना उचित नहीं है। और वारांगना यदि किसी निर्धन के सिर्फ गुणों पर फिदा होकर अनुराग करने लगेगी तो उसका धंधा ही चौपट हो जायेगा और फिर उसका परिवार भी दुःखी हो जायेगा ।' देवदत्ता ने कहा- 'आप बात न बनायें। आप जैसे सिंहसम | पराक्रमी पुरुष के लिए देश और क्या परदेश ? गुणिजनों के लिए सर्वत्र स्वदेश है। जो मूर्ख हमें धन से अपना बनाना चाहते हैं, वे कम से कम मेरे हृदय से तो बाहर ही है। अतः गुणमंदिर! मैं आपको साफ-साफ सुना देती हूं कि आपके | सिवाय अब मेरे हृदय में दूसरा कोई प्रवेश नहीं कर सकता। इसलिए सौभाग्यशाली! मेरा तन, मन और धन तीनों आपके चरणों में समर्पित है, इन्हें स्वीकारो' इस तरह देवदत्ता के साग्रह अनुरोध पर मूलदेव ने उसकी बात मान ली और | स्नेहपूर्वक दोनों आमोद-प्रमोद करने लगे।
ठीक इसी समय द्वारपाल ने आकर निवेदन किया- 'स्वामिनी ! चलो अब राजसभा में नृत्य का समय हो गया | है।' देवदत्ता मूलदेव को भी प्रच्छन्नवेश में अपने साथ राजसभा में ले गयी। राजा के सामने देवदत्ता ने रंभा के समान | हावभाव से उज्ज्वलकारी नृत्य प्रारंभ किया । मूलदेव ने इंद्र के दुंदुभिवादक की तरह बहुत ही सुंदर एवं प्रभावपूर्ण ढंग | से दुंदुभि बजायी । राजा देवदत्ता के शास्त्रीय हावभावयुक्त नृत्य से अत्यंत प्रभावित होकर बोला- 'वर (प्रसाद) मांगो।' | देवदत्ता ने अपना वर भंडार में अमानत रखने को कहा। तत्पश्चात् उसने मूलदेव के साथ संगीत और नृत्य किये। राजा ने प्रसन्न होकर उसे सुंदर आभूषण और बढ़िया पोशाक ईनाम में दिये । पाटलिपुत्रनरेश के द्वारपाल विमलसिंह ने खुश | होकर राजा से कहा- 'राजन् ! पाटलिपुत्र में बुद्धिशाली कलाकार मूलदेव रहता है । हो न हो, यह कलाप्रकर्ष या तो उसका दिया हुआ है, या चुराया हुआ है। अन्य किसी में ऐसा कला प्रकर्ष हो नहीं सकता। इसलिए मूलदेव के बाद
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