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मूलदेव-मंडिक चोर की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ७० से ७२ इसे ही बताते हैं।१२६। दिवसे वा रजन्यां वा, स्वप्ने च जागरेऽपि वा । सशल्य इव चौर्येण, नैति स्वास्थ्यं नरः क्वचित् ॥७०॥
अर्थ :- तीखा कांटा या तीक्ष्ण तीर चुभ जाने पर जैसे मनुष्य शांति का अनुभव नहीं कर पाता, वैसे ही चोर . को दिन-रात, सोते, जागते किसी भी समय शांति महसूस नहीं होती। चोरी करने वाला केवल शांति
से ही वंचित नहीं होता, उसका बंधु-बांधववर्ग भी उसे छोड़ देता है ।।७०।। ।१२७। मित्र-पुत्र-कलत्राणि भ्रातरः पितरोऽपि हि । संसृजन्ति क्षणमपि न म्लेच्छैरिव तस्करैः ॥७१॥ अर्थ :- म्लेच्छों के साथ जैसे कोई एक क्षणभर भी संसर्ग नहीं करता; वैसे ही चोरी करने वाले के साथ उसके
मित्र, पुत्र, पत्नी, भाई, माता-पिता इत्यादि रोग-संबंधी भी क्षणभर भी संसर्ग नहीं करते ॥७१।। व्याख्या :- नीतिशास्त्र में कहा गया है-ब्रह्महत्या, मदिरापान, चोरी, गुरुपत्नी के साथ सहवास और विश्वासघात इन पांच पापकर्मों को करने वाले के साथ संसर्ग करना भी पांच महापातक बताये हैं। चोरी करने वाला, चोरी कराने वाला, चोरी की सलाह देने वाला, उसकी सलाह व रहस्य के जानकार, चोरी का माल खरीद करने वाला, खरीद कराने वाला, चोर को स्थान देने वाला, उसे भोजन देने वाला; ये आठों राजदंड (दंडविधान शास्त्र) की दृष्टि से चोरी के अपराधी कहे गये हैं ।।७१।।
चोरी करने की प्रवृत्ति में दोष और उससे निवृत्ति में जो गुण है उसे दृष्टांत द्वारा समझाते हैं। ||१२८। संबन्ध्यपि निगृह्येत चौर्यान्मण्डिकवन्नृपैः । चौरोऽपित्यक्तचौर्यः स्यात् स्वर्गभाग् रौहिणेयवत् ॥७२।। अर्थ :- चोरी करने वाला संबंधी हो तो भी मंडिक चोर की तरह राजा उसे पकड़ता है और चोर होने पर भी
चोरी का त्याग करने से रोहिणेय की तरह स्वर्ग-सुख का अधिकारी हो जाता है ।।७।।
- नीचे दोनों दृष्टांत क्रमशः दे रहे हैंव्याख्या :मूलदेव और मंडिक चोर :
गौड़देश में पाटलिपुत्र नामक एक नगर था। समुद्र के जल के समान उसका मध्यभाग दृष्टिगोचर नहीं होता था। अनेक कलाओं का स्रोत, साहसिक बुद्धि का मूल, वहां का राजकुमार मूलदेव था। वह धूर्तविद्या में शिरोमणि, कृपण और अनाथ का बंधु, कूटनीति में चाणक्यवत् प्रवीण, दूसरों के अंतरंग को भांपने में चालाक, रूप और लावण्य में कामदेव के समान, चोर के साथ चोर, साधु के साथ साधु, टेढ़े के साथ टेड़ा और सीधे के साथ सीधा, गंवारों के साथ गंवार, चतुर के साथ चतुर, जार के साथ जार, भट के साथ भट, जुआरी के साथ जुआरी, गप्प हांकने वालों के साथ गप्पी था। उसका हृदय स्फटिक रत्न के समान स्वच्छ था। इसलिए झटपट दूसरे की असलियत को जान जाता था। वह आश्चर्यजनक कौतुक दिखाकर लोगों को विस्मित करता हुआ महाबुद्धिशाली विद्याधर के समान इच्छानुसार घूमता था। उसमें जूआ खेलने का बहुत बड़ा ऐब (दूषण) था। इस कारण पिता ने उसे अपमानित करके घर से निकाल दिया था। अतः वह घूमता-घामता देवपुरी की तरह शोभायमान उज्जयिनी नगरी में पहुंचा। जादुयी गोली के प्रयोग से वहां वह कुबड़ा और बौना बन गया। इस प्रकार के बहुत से करतब दिखाकर वह लोगों को आश्चर्य में डाल देता। धीरे-धीरे अपनी कलाओं से उसने वहां प्रसिद्धि प्राप्त कर ली। उज्जयिनी नगरी में ही रूप लावण्य और कलाविज्ञान की कुशलता
त को लज्जित कर देने वाली देवदत्ता नाम की उत्तम गणिका रहती थी। कला के समस्त गुणों में वह निष्णात हो गयी थी। उस चतुर गणिका को मनोरंजन करने वाला उसकी बराबरी का वहां कोई नहीं था। मूलदेव ने जब यह सुना तो उसे आकर्षित करने के लिए उसके घर के पास ही अपना डेरा जमाया। उससे सुबह-सुबह साक्षात् देव, गंधर्व या तुंबरु के समान संगीत की तान छेड़ी। देवदत्ता के कानों में गायन की मधुर झंकार पड़ी तो उसने पूछा-इतना मधुर स्वर किसका है? उसने अत्यंत विस्मित होकर अपनी दासी को इसका पता लगाने भेजा। दासी ने तुरंत तलाश करके गणिका से कहा- 'देवी! देखने में तो बौना-सा है, लेकिन कंठ इतना अच्छा है और स्वभाव इतना मृदु है कि इस क्षेत्र में तो
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