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मूलदेव की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ७२ | बहुत सा धन देकर खरीद क्यों नहीं लेता? मूलदेव भी हक्का-बक्का-सा आँखें मूंदे चुपचाप खड़ा रहा; वह उस समय
कोई स्थानभ्रष्ट किसी भेड़िये की-सी अपनी हालत महसूस कर रहा था। अचल ने एकाएक विचार किया कि यह | महात्मा दैववश ऐसी स्थिति में आ पड़ा है; इसलिए इसका निग्रह ( दंड देकर काबू में) करना उचित नहीं है। अतः उसने | मूलदेव से कहा - 'मूलदेव ! मैं आज तक के तेरे किये हुए अपराधों को माफ करता हूं। अगर तूं कृतज्ञ है तो इसके बदले | समय आने पर मेरे पर उपकार करना । ' यों कहकर उसने मूलदेव को छोड़ दिया ।
युद्ध में घायल हुए हाथी के समान मूलदेव वहां से निकलकर झटपट चल पड़ा और कुछ ही देर में गाँव के बाहर | पहुँचकर उसने एक महासरोवर में स्नान किया। स्नान के बाद धोये हुए श्वेत वस्त्र पहनने पर वह शरद् ऋतु - सा | शोभायमान हो रहा था। अचल पर उपकार या अपकार करने के विचार रूपी मनोरथ पर आरूढ़ मूलदेव वहां से वेणात की ओर चला। रास्ते में दुर्दशा की प्रिय सखी के समान बारह योजन लंबी और हिंस्र पशुओं से भरी हुई अटवी गयी। वह चाहता था, महासमुद्र को पार करने के लिए जैसे नौका सहायक होती है, वैसे ही मुझे इस लंबी अटवी को | पार करने में कोई सहायक मिल जाय। ठीक उसी समय मानो आकाश से टपक पड़ा हो, इसी तरह टक्क नाम का एक | ब्राह्मण भोजन की पोटली हाथ में लिये यकायक वहां आ निकला । वृद्धपुरुष को लाठी का सहारा मिल जाने की तरह | असहाय मूलदेव को भी इस ब्राह्मण का सहारा मिल जाने से वह बहुत खुश हुआ। मूलदेव ने ब्राह्मण से कहा - 'विप्र ! | इस अटवी में असहाय पड़े हुए मेरी छाया के समान मुझे आप भाग्य से मिल गये हैं। अतः अब हम दोनों यथेष्ट बातें करते हुए इस अटवी को शीघ्र ही पारकर लेंगे। कथा रास्ते की थकान को मिटा देती है। इस पर ब्राह्मण ने पूछा'महाभाग ! पहले यह तो बताओ कि तुम्हें कितनी दूर और किस जगह जाना है ? और मेरी मार्ग की मैत्री को स्वीकार करो। मुझे तो इस जंगल के उस पार ही 'वीरनिधान' नामक नगर में जाना है । तुम्हें कहां जाना है, वह कहो ।' मूलदेव ने कहा- मुझे वेणातट नगर जाना है। विप्र ने सुनते ही कहा- तब तो ठीक है। बहुत दूर तक हमारा रास्ता एक ही है, तो लो, चलें। सिर को अपने प्रखर ताप से तपाने वाला सूर्य मध्याह्न में आ गया, तब तक वे दोनों एक सरोवर के | तट पर पहुंचे। मूलदेव उसमें हाथमुंह धोकर थकान मिटाने के लिए एक ऐसी छायादार जगह पर बैठ गया, जहां धूप | नहीं लगती थी । ब्राह्मण ने भी अपनी पोटली खोली और उसमें से भोजन निकालकर कृपण की तरह अकेला ही पानी | से लगाकर खाने लगा। धूर्त ने सोचा- 'पहले मुझे दिये बिना ही यह अकेला खाने बैठ गया है। मालूम होता है, इसे बहुत कड़ाके की भूख लगी है। संभव है, भोजन कर लेने के बाद यह मुझे देगा।' परंतु ब्राह्मण तो उसकी इस आशा | | के विपरीत भोजन करते ही चटपट अपनी पोटली बांधकर खड़ा हो गया। मूलदेव ने सोचा- आज नहीं तो कल देगा। | मगर दूसरे दिन भी ब्राह्मण ने उसी तरह अकेले ही भोजन किया। इसी आशा ही आशा में मूलदेव के तीन दिन बीत गये। पुरुषों के लिए आशा ही तो जीवन होता है। जब दोनों के मार्ग बदलने का अवसर आया तब ब्राह्मण ने धूर्तराज से कहा 'लो, भाग्यशाली ! अब मेरा और तुम्हारा रास्ता अलग-अलग है। मैं अपने मार्ग पर जाता हूं। तुम्हारा कल्याण हो।' इस पर मूलदेव ने भी कहा- 'विप्रवर! तुम्हारे सहयोग से मैंने बारह योजन लंबी इस भयंकर अटवी को एक कोस | की तरह पार कर ली। अब मैं वेणातट जाऊंगा। मेरे योग्य कोई काम हो तो जरूर कहना । मेरा नाम मूलदेव है। यह | तो बताओ कि आपका नाम क्या ?' उसने कहा- 'मेरा असली नाम तो सद्धड़ विप्र है, लोग मुझे निर्घृण शर्मा के नाम | से पुकारते हैं।' यों कहकर साथी टक्क मूलदेव से अलग हो गया।
अब मूलदेव अकेला ही वेणातट के रास्ते पर चल पड़ा। रास्ते में प्राणियों के विश्रामस्थल की तरह एक गाँव नजर | आया। भूख से व्याकुल मूलदेव के पेट से आंतें लग गयी थीं। उसने गाँव में प्रवेश किया और भिक्षा के लिए घूमते हुए उसे एक घर से उड़द के बाकुले मिले। वह उन्हें ही लेकर गाँव से बाहर निकल रहा था कि सामने से पुण्यपुंज के समान एक मासिकोपवासी मुनि आते हुए दिखायी दिये। उन्हें देखकर मूलदेव बहुत हर्षित हुआ । सोचा- 'मेरे ही किसी पुण्योदय से आज समुद्र से तारने वाले यानपात्र (जहाज) के समान संसारसमुद्र से तारने वाले उत्तम तपस्वी मुनि रूपी पात्र मिले हैं।' रत्नत्रयधारी मुनिवर को पात्र में उसने वे उड़द के बाकुले भिक्षा के रूप में इस भावना से दिये कि दीर्घकाल से सिंचित विवेकवृक्ष का फल आज मुझे मिले।' दान देने के बाद मूलदेव ने कहा - 'सचमुच वे धन्य है;,
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