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रोहिणेय की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ७२ | भला कौन करेगा? पुत्र के कथन पर से लोहखुर को बड़ी खुशी हुई उसके सिर पर हाथ फिराते हुए लोहखुर ने निष्ठुरता पूर्वक कहा-'देख! देवताओं के द्वारा निर्मित समवसरण में महावीर धर्मोपदेश देते हैं। उनकी वाणी कदापि मत सुनना। इसके सिवाय तुम जो कुछ भी करना चाहो, करने में स्वतंत्र हो।' यों अपने लड़के को पक्का करके लोहखुर मर गया। पिता की मरणोत्तर क्रिया करने के बाद रोहिणेय अपने पिता से भी बढ़कर निकला। वह भी दिन-रात चोरी करने लगा, मानो दूसरा ही लोहखुर हो। अपने प्राणों की परवाह न करके पिता की आज्ञा का पालन करते हुए, दासीपुत्र की तरह वह राजगृह नगर में चोरियां करता था।
एक बार ग्रामों और नगरों में क्रमशः विहार करते हुए १४ हजार साधुओं से संपन्न अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी स्वर्णकमल पर चरणकमलों को स्थापित करते हए राजगृह नगर पधारें। चारों निकायों के देव-देवियों ने मिलकर समवसरण की रचना की।
एक दिन प्रभु अपनी योजनगामिनी सर्वभाषाओं में परिवर्तित होने वाली पीयूषवर्षिणीवाणी में उपदेश दे रहे थे। दैवयोग से उसी समय रोहिणेय किसी कार्यवश राजगृह की ओर जा रहा था। रास्ते में ही भगवान् का समवसरण पड़ता था। अतः रोहिणेय ने सोचा-अरे! इस मार्ग से जाऊंगा तो अवश्य ही महावीर के वचन कानों में पड़ेंगे, इससे पिताजी की आज्ञा का भी भंग होगा। परंतु दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं है। ऐसा सोचकर रोहिणेय दोनों हाथों से अपने कान बंद करके जल्दी-जल्दी राजगृह की ओर जाने लगा। इस तरह हमेशां जाते-जाते एक दिन समवसरण के पास ही अचानक पैर में कांटा गड़ गया। जल्दी चलने के कारण कांटा गहरा गड़ गया। बड़ी पीड़ा होने लगी। उसे निकाले बिना चला नहीं जा रहा था। फलतः कांटा निकालने के लिए उसने कानों पर से हाथ हटाया और नीचे पैरों के पास ले जाकर कांटा खींचने लगा। इसी दौरान प्रभु की वाणी उसके कानों में पड़ गयी-देवता पृथ्वीतल का स्पर्श किये बिना चार अंगुल ऊपर रहते हैं। उनकी आंखों की पलकें झपकती नहीं, उनकी फूलमाला मुहती नहीं और उनके शरीर में मैल व पसीना नहीं होता। इतना सुनते ही वह पश्चात्ताप करने लगा-ओह! मैंने तो बहुत-से वाक्य सुन लिये हैं, धिक्कार है मुझे! यों मन ही मन कहता हुआ झटपट कांटा निकालकर फिर दोनों हाथों से कान बंद करके आगे चलने लगा। इस तरह वह चोर प्रतिदिन राजगृह में आता-जाता और चोरी करता था।
एक दिन नगर के धनाढ्य लोगों ने आकर श्रेणिक राजा से शिकायत की-महाराज! आप सरीखे न्यायी राजा के राज्य में हमें और कोई तकलीफ नहीं, सिर्फ एक बड़ा भारी कष्ट है कि चोर हमारा धन चुराकर अदृश्य हो जाते हैं। ढूंढ़ने पर भी पता नहीं लगता। प्रजा की पीड़ा सुनकर बंधु के समान दुःखित राजा श्रेणिक ने क्रुद्ध होकर कोतवाल से कहा-मालूम होता है चोर के हिस्सेदार बनकर तुम चोरों की उपेक्षा करते हो, वेतन मेरा खाते हो, काम चोरों का करते हो। इस तरह से जनता का धन दिनों दिन चुराया जा रहा है। कोतवाल ने दुःख पूर्वक कहा-क्या बताऊँ देव! रोहिणेय नामक एक चोर है; जो नागरिकों को लूट रहा है। वह इतना चालाक है कि बंदर की तरह, विद्युत की चमक के समान कूद-कूदकर क्रमशः एक घर से दूसरे घर और वहां से किला आसानी से लांघ लेता है। हम वहां पहुंचते हैं, तब तक वह वहां से गायब हो जाता है। हम एक कदम चलते हैं, इतने में वह सौ कदम चल लेता है। उस चोर को पकड़ने और मारने में हमारा वश नहीं चलता। उसे पकड़ना तो दूर रहा, देख पाना भी मुश्किल है। आप चाहें तो कोतवाल | का हमारा अधिकार हमसे ले लें। यह सुनकर राजा ने आंख के इशारे से अभयकुमार को चोर को पकड़ने का संकेत किया। उसने कोतवाल से कहा-कोतवालजी! आज नगर के बाहर चतुरंगिणी सेना तैयार करके रखना। जब चोर नगर में प्रवेश करने लगे, तभी उसे सेना चारों और से घेर ले। अंदर विद्युदुत्क्षिकरण करते हुए घबराये हुए हिरन की तरह वह पकड़ा जायगा। अतः जब वह आये तभी उसके पैरों की आहट से उसके आगमन का पता लगते ही उस महाचोर को अप्रमत्त सैनिक पकड़ लें। आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। यों कहकर कोतवाल वहां से रवाना हुआ। बुद्धिमान कोतवाल ने गुप्त रूप से सेना तैयार की। संयोगवश उस दिन रोहिणेय दूसरे गांव गया हुआ था। अतः नगर के बाहर सेना का पड़ाव है, इसे न जानने के कारण जैसे अनजान हाथी गड्ढे में गिर जाता है, वैसे ही रोहिणेय सेना के घेरे में आ गया और पकड़ा गया। घेरे के साथ ही उसने नगर में प्रवेश किया। इस उपाय से चोर को पकड़कर और बांधकर कोतवाल
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