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रोहिणेय की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ७२ ने राजा को सुपुर्द किया। राजा ने आज्ञा दी-'जैसे न्याय सज्जन की रक्षा और दुर्जन को सजा देता है, वैसे ही इसे सजा दो।' इस पर अभयकुमार ने कहा-'महाराज! अभी तक यह बिना चोरी किये, अकेला ही पकड़ा गया था। इसलिए इसके बारे में यथोचित सोचकर फिर इसे दंड देना चाहिए। अतः राजा ने रोहिणेय से पूछा-बोलो जी, तुम कहां के हो? तुम्हारा पेशा क्या है? यहां किस प्रयोजन से आये हो? तुम रोहिणेय तो नहीं हो न? अपना नाम सुनते ही सशंक होकर उसने मन ही मन कुछ सोचकर राजा से कहा-मैं शाली गांव का दुर्गचंड नामक किसान हूं। किसी काम से राजगृह आया था, शाम हो जाने के कारण कौतुकवश एक मंदिर में रात बितायी थी। सुबह होने से पहले ही जब मैं अपने घर जा रहा था, तभी राक्षस की तरह राज-राक्षस ने किला पार करते हुए मुझे घेरकर पकड़ लिया। मुझे अपने प्राणों का सबसे अधिक भय है। अतः मच्छीमार के हाथ से छुटी हुई मछली जैसे जाल में फंसाकर पकड़ ली जाती है, वैसे ही नगर के अंदर गश्त लगा रहे राज-राक्षसों के पंजे से छूटा हुआ मैं बाहर के राज-राक्षसों द्वारा पकड़ लिया गया हूं। फिर निरपराध होते हुए भी मुझे चोर समझकर ये यहां ले आये हैं। अब आप ही कृपा करके न्यायाधीश बनकर मेरा न्याय करें।' राजा ने उसकी बात सुनकर उसके बताये हुए गांव में उसकी जांच पड़ताल करने के लिए एक विश्वस्त आदमी भेजा, तब तक रोहिणेय को कारागार में बंद करके रखने का आदेश दिया।
चोर ने भी उस गांव में पहले से संकेत कर दिया था। चोरों को भी पहले से भविष्य का कुछ-कुछ पता लग जाता है। राजपुरुषों ने उस गांव में जाकर पता लगाया तो गांव वाले लोगों ने कहा-हां, दुर्गचंड नाम का एक किसान पहले यहां रहता था, अब वह दूसरे गांव गया है। राजपुरुषों ने आकर राजा से सारी हकीकत कही। इस पर अभयकुमार ने सोचा-चतुराई से किये हुए दंभ का पता तो विधाता को भी नहीं लग सकता। अतः अभयकुमार ने एक कुशल कारीगर को बुलाकर उसे सारी योजना समझाकर गुप्त रूप से एक रत्नजटित बहुमूल्य देवविमान के समान सात मजला महल तैयार करवाया। तैयार होने पर वह ऐसा लगता था, मानो अप्सरातुल्य रमणियों से अलंकृत देवलोक से अमरावती का एक टुकड़ा अलग होकर यहां गिर पड़ा हो। जब गंधर्व लोग वहां एकत्रित होकर संगीत, नृत्य और वाद्य से संगीत महोत्सव करने लगे, तब तो इस महल ने गंधर्वनगर की अद्भुत शोभा धारण कर ली। यह सब हो जाने पर एक दिन अभयकुमार ने चोर को दूध के समान सफेद चंद्रहास मदिरा पीलाकर बेहोश कर दिया। बेहोशी हालत में ही उसे देवदूष्य वस्त्र पहना दिये गये और उसी महल में ले जाकर देवों की-सी पुष्पशय्या पर लिटा दिया गया। जब वह होश में आया और बैठा तो उसने अपने चारों ओर दिव्यांगनाओं और देवकुमारों का जमघट देखा, मधुरवाद्य गीत और नृत्य का झंकार सुना तो आश्चर्य-विस्फारित नेत्रों से देखने लगा। अभयकुमार के पूर्व संकेतानुसार उपस्थित दिव्यवस्त्रधारी नरनारियों ने उच्च स्वर से जय-जयकार किया। और कहने लगे-अभी-अभी आप इस महाविमान में देव रूप में उत्पन्न हुए हैं। आप हमारे स्वामी हैं, हम आपके सेवक हैं। आप इंद्र के समान इन देवांगनाओं के साथ यथेष्ट क्रीड़ा करें। इस प्रकार चातुर्य और स्नेहगर्भित वचनों से उन्होंने कहा। चोर ने सोचा-क्या मैं देव हूं। इतने में ही सभी नरनारियों ने ताली बजाते हुए ताल और लय से युक्त संगीत छेड़ा। तभी स्वर्णधारी एक पुरुष ने वहां आकर कहा-यह तुमने क्या प्रारंभ किया है? उन्होंने प्रतिहार से कहा-हम अपने स्वामी को अपना विज्ञानकौशल बता रहे हैं। वह बोला-अपने स्वामी को विज्ञानकौशल बताना तो अच्छा है, लेकिन देवलोक के आचार का इनसे पालन कराओ। तब उन्होंने पूछाकौन-सा आचार? यह सुनकर उस पुरुष ने रौब दिखाते हुए कहा-वाह! यह बात भी भूल गये तुम? यहां जो भी नया देव उत्पन्न होता है, उससे अपने पूर्वजन्म का अच्छे-बुरे कार्य का विवरण पहले पूछा जाता है, तत्पश्चात् स्वर्गसुख | भोगने की खुली छुट दी जाती है। ओ हो! नये स्वामी के लाभ की खुशी में हम यह कहना ही भूल गये इनसे। फिर
चोर के पास जाकर उन सबने कहा-स्वामिन्! आप हम पर प्रसन्न हैं, इसलिए आप देवलोक की आचारमर्यादा का पालन करिए। यहां जो जन्म लेता है, उससे सर्वप्रथम अपने पूर्वजन्म में किये गये हुए शुभाशुभ कार्यों का हाल बताना आवश्यक होता है, तत्पश्चात् उसे स्वर्गसुखोपभोग करने की छूट दी जाती है। यही यहां का आचार है। चोर ने कहायह सचमुच देवलोक है या मुझे फसाने के लिए अभयकुमार का रचा हुआ मायाजाल है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुझसे भेद जानने के लिए यह प्रपंच किया हो? क्या कहा जाय इन्हें? इतने में उसे कांटा निकालते समय कानों में पड़े हुए
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