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मूलदेव की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ७२ धीरे राज्य-संचालन व्यवस्थित ढंग से होने लगा। दुःख के सब बादल अब फट गये थे, सुख का सूर्योदय हो गया था। उज्जयिनी के राजा के साथ परस्पर स्नेहयुक्त व्यवहार के कारण उसकी मैत्री हो गयी।
इधर देवदत्ता ने मूलदेव की अचल द्वारा जब विडंबना होते देखी तो उसे भी अचल के प्रति घृणा हो गयी। एक दिन मौका देखकर उसने अचल को फटकारा-'अरे धनमदांध मूर्ख! क्या तुमने मुझे अपनी कुलगृहिणी समझ रखा है? जो उस दिन मेरे सामने मेरे ही घर में तुमने मूलदेव के साथ ऐसा तुच्छ व्यवहार किया। याद रखना, मैं तुम्हें इसके | लिए क्षमा नहीं करूंगी। तुम्हें मटियामेट करके ही छोडूंगी।' बस, आज से मेरे घर में पैर रखने की जरूरत नहीं। इस प्रकार तिरस्कार पूर्वक अचल को उसने घर से निकाल दिया। उसके बाद देवदत्ता राजा के पास पहुंची। और उनसे कहा'देव! आपके पास मेरा जो वरदान अमानत रखा हुआ है उसे मैं आज लेना चाहती हूं।' राजा ने कहा- 'तुम जो चाहो सो वरदान मांग लो, मैं वचनबद्ध हूं।' देवदत्ता ने वरदान मांगा कि-आज से मूलदेव के सिवाय और किसी को मेरे घर पर आने की आज्ञा मत देना। खासतौर से अचल पर तो अवश्य प्रतिबंध लगा दें; क्योंकि वह प्रायः मेरे यहां आया करता है। राजा बोला-'अच्छा, ऐसा ही होगा। परंतु यह तो बताओ, ऐसा प्रतिबंध लगाने का क्या कारण है?' इस पर देवदत्ता ने माधवी को आँख के इशारे से सचित किया कि वह उसे सारा हाल बता दे। माधवी ने अथ से इति तक सारी घटना सुनायी। सुनते ही जितशत्रु राजा की भौंहें तन गयी। उसने क्रुद्ध होकर सार्थवाह अचल को बुलाया और तिरस्कार पूर्वक कहा-'मूर्ख! कान खोलकर सुन ले! मेरे राज्य के ये दोनों रत्न हैं, आभूषण है। तुमने अपने धन के
होकर मेरे रत्न की पत्थर की तरह अवहेलना की है। इस भयंकर अपराध के बदले तुम्हें मृत्युदंड की सजा दी जाती है।' अचल तो यह सुनते ही शर्म के मारे धरती में गड़ गया। उसका चेहरा फीका पड़ गया। वह राजा के सामने गिडगिडाकर प्राणों की भिक्षा मांगने लगा। देवदत्ता से भी माफी मांगते हए कातर दष्टि से उसकी ओर देखने लगा। देवदत्ता को उस पर दया आ गयी। उसने राजा से उसकी मृत्युदंड की सजा मौकूफ करवा दी। राजा ने उसे आदेश देते हुए कहा-'सार्थवाह! तेरी प्राणरक्षा तभी होगी, जब तूं कहीं से ढूंढकर मूलदेव को वापिस यहां ले आयेगा।' अचल ने राजा की बात शिरोधार्य करके वहां से नमन करके प्रस्थान किया। एक ओर देवदत्ता द्वारा किया गया अपमान उसके हृदय को कचोट रहा था, तो दूसरी ओर खोये हुए धन की तरह वह एक ही धुन में मूलदेव की खोज में आगे से आगे तेजी से बढ़ा चला जा रहा था। परंतु चलते-चलते कई दिन हो गये, मगर मूलदेव का कहीं पता न लगा। अचल सार्थवाह के मन में बड़ी बेचैनी रहने लगी। इसी हड़बड़ी में वह झटपट अपना सारा माल वाहनों में भरवाकर काफले के साथ पारसकुल देश की ओर रवाना हो गया।
इधर राजा बना हुआ मूलदेव सोचने लगा-'देवदत्ता के बिना इस राज्यलक्ष्मी का उपभोग मुझे लवण रहित भोजन के समान फीका लग रहा है। अतः उसने अपने चतुर दूत के साथ उज्जयिनी-नरेश जितशत्रु राजा के पास देवदत्ता के लिए उपहार सहित संदेश भिजवाया। 'देवप्रदत्त राज्यलक्ष्मी का उपभोग करते हुए मूलदेव ने जितशत्रु नृप को पत्र में यह संदेश कहलवाया है कि 'राजन्! आप शायद मेरे वर्तमान नाम से परिचित होने के कारण भूल गये होंगे। मैं वही मूलदेव हूं। आप जानते हैं कि देवदत्ता के प्रति मेरे हृदय में कितना प्रेम है? अतः अगर उसकी इच्छा हो तो आप उसे मेरे यहां भेज दें।' संदेश सुनते ही उज्जयिनीनरेश ने दूत से कहा-मुझसे उन्हें इतनी प्रार्थना करने की क्या आवश्यकता थी? हमारे और विक्रम राजा के तो अच्छे संबंध हैं? मेरे में और उनमें कोई भेद नहीं है। मुझे पता ही नहीं चला कि ये विक्रम राजा भूतपूर्व मूलदेव हैं। नहीं तो, मैं स्वयं उनसे मिलने जाता, देवदत्ता को भी पहले ही भेज देता।' जितशत्रु ने फौरन देवदत्ता को बुलवाकर कहा-'महाभागे! तुम्हारे भाग्य खुल गये हैं। चिरकाल के बाद तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो गया है। मूलदेव देव के प्रभाव से वेणातट के राजा विक्रम बन गये हैं। तुम्हें बुलाने के लिए उन्होंने खासतौर से अपने दूत के साथ संदेश भिजवाया है। अतः तुम्हें अब अविलंब वहां जाना चाहिए।' यह खुशखबरी सुनते ही हर्ष से देवदत्ता का मुखमंडल खिल उठा। जितशत्रु की आज्ञा से वह वहां से अपना दलबल एवं आवश्यक सामग्री लेकर चल पड़ी और कुछ ही दिनों में वेणातट पहुंची। उसने प्रवेश से एक दिन पहले ही विक्रम राजा को अपने आने की खबर पहुंचा दी थी। इसलिए विक्रमराजा ने बहुत ही धूमधाम से गाजे-बाजे के साथ देवदत्ता को नगर प्रवेश कराया
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