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असत्यवचन से दोष और सत्यवचन की महिमा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ६२ से ६४ में उत्पन्न होता है। रौरव शब्द नरक के अर्थ में लोक-प्रचलित है। नहीं तो, कहा जाता-समस्त नरकों में। श्री जिनेश्वरदेव के कथन से विपरीत अर्थ करने वाले और असत्यवादी कुतीर्थियों और स्वमत-निह्ववों आदि की क्या गति होगी? वे तो नरक से भी अधिक अधम-गति प्राप्त करेंगे! उनको प्राप्त होने वाली इस कुगति को कौन रोक सकता है? | इसलिए कहा-'ओफ! सचमच वे शोक और खेद करने योग्य है।' जिनोक्तमार्ग से जरा-सा भी विपरीत बोलना या पृथक प्ररूपणा करना, अन्य सब पापों से बढ़कर भयंकर पाप है। मरीचि के भव में उपार्जित ऋषभदेव-प्ररूपित मार्ग से जरासी विपरीत प्ररूपणा करने के पाप के कारण ही भगवान् महावीर के भव में देवों द्वारा प्रशंसित और तीन लोकों में
समान तीर्थंकर परमात्मा होने पर भी प्रभ ने अनेकबार ग्वाले आदि द्वारा प्रदत्त असीम यातनाएँ प्राप्त की थी। और स्त्री, गाय, ब्राह्मण और गर्भस्थ जीव की हत्या करने वाले दृढ़प्रहारी सरीखे कितने ही महापापियों ने उसी जन्म में मुक्ति प्राप्त की है। यह बात प्रसिद्ध है ।।६२।।।
असत्यवाद के दुष्परिणाम बताकर अब सत्यवाद की प्रशंसा करते हैं।११९। ज्ञानचारित्रयोर्मूलं, सत्यमेव वदन्ति ये । धात्री पवित्रीक्रियते, तेषां चरणरेणुभिः ॥६३॥
अर्थ :- जो मनुष्य ज्ञान और चारित्र के मूल कारण रूप सत्य ही बोलते हैं, उन मनुष्यों के चरणों की रज से
__ यह पृथ्वी पवित्र होती है ।।६३।। ___ व्याख्या :- ज्ञान और चारित्र (क्रिया) का मूलकारण सत्य है। भगवद् वचन के भाष्यकारों ने उनके ही वचनों का अनुसरण करते हुए कहा है- 'नाणकिरियाहिं मोक्खो' ज्ञान शब्द में दर्शन का भी समावेश हो जाता है। क्योंकि दर्शन के बिना ज्ञान अज्ञान माना जाता है। मिथ्यादृष्टि जीव सद्-असद-पदार्थों को विपरीत रूप से जानता है। उसका ज्ञान संसार-परिभ्रमण कराने वाला मनमाना अर्थ करने वाला तथा निरपेक्ष वचन का वाचक होने से सम्यग्ज्ञान के फल का दाता नहीं होता। कहा भी है-'मिथ्यादृष्टि के ज्ञान में सत्य और झूठ में अंतर नहीं होने से वह संसार-परिभ्रमण का कारण रूप है। अपनी बौद्धिक कल्पना के अनुसार मनगढंत अर्थ करने से शास्त्राधीनता अथवा शास्त्र-सापेक्षता न होने से उस (मिथ्या) ज्ञान के फल स्वरूप विरति नहीं होती। इसी कारण मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान माना गया है ।।६३।।
सत्यवादियों का इस लोक में भी प्रभाव बताते हैं।१.२०। अलीकं ये न भाषन्ते सत्यव्रतमहाधनाः । नापराद्धमलं तेभ्यो भूत-प्रेतोरगादयः ॥६४॥ अर्थ :- जो सत्यव्रत के महाधनी मनुष्य असत्य नहीं बोलते, उन्हें भूत, प्रेत, सर्प आदि कोई भी दुःख देने में|
समर्थ नहीं होते ।।६४।। व्याख्या :- भूत, प्रेत, व्यंतर आदि अपने संबंधियों को हैरान, परेशान करते हैं। उपलक्षण से सर्प एवं सिंहादि जानना। परंतु सत्यव्रत रूपी महाधन वाले जो आत्मा असत्य नहीं बोलते, उन्हें भूतादि हैरान करने में असमर्थ है। इस संबंध में दूसरे श्लोक (अर्थसहित) कहते हैंजलाशय की पाल के समान अहिंसा रूपी जल के रक्षक के समान सत्य दूसरा व्रत है। सत्य व्रत का भंग होने
जाय तो अहिंसा रूपी जलाशय अरक्षित होकर नष्ट हो जायेगा। अतः सज्जन पुरुषों को सभी जीवों के लिए उपकारी सत्य ही बोलना चाहिए या फिर सर्वार्थसाधक मौन का आलंबन लेकर रहना चाहिए। किसी के पूछने पर वैर पैदा करने का कारणभूत, किसी की गुप्त बात प्रकट करने वाला, उत्कट शंका पैदा करने वाला या शंकास्पद, हिंसाकारी या परपैशुन्यकारी (चुगली खाने वाला) वचन नहीं बोलना चाहिए। परंतु धर्म का नाश होता हो, क्रिया का लोप होता हो या सत्यसिद्धांत के सच्चे अर्थ का लोप होता हो तो शक्तिशाली पुरुष को उसके निराकरण के लिए बिना पूछे ही बोलना चाहिए। चार्वाक, नास्तिक, कौलिक, विप्र, बौद्ध, पांचरात्र आदि ने जगत् को असत्य से आक्रांत करके विडम्बित किया है। सचमुच, उनके मुंह से जो उद्गार निकलते हैं; वे नगर के नाले के प्रवाह के समान पंकमिश्रित दुगंधित जल सदृश है। दावानल से झुलसा हुआ वृक्ष तो फिर से हरा-भरा हो सकता है, मगर दुर्वचन रूपी आग से जला हुआ व्यक्ति इस लोक में यथार्थ धर्म-मार्ग को पाकर, पल्लवित नहीं होता। चंदन, चंद्रिका, चंद्रकांत मणि, मोती की माला उतना आनंद नहीं देती, जितना आनंद मनुष्यों की सच्ची वाणी देती है। शिखाधारी, मुंडित मस्तक,
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