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वसुराजा की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ६० पर्वतक ने कहा-'चलो, इस विषय में हम शर्त लगा लें। अपने पक्ष को सत्य सिद्ध करने में जो असफल होगा, उसे अपनी जीभ कटानी होगी। पहले यह शर्त मंजूर कर लो। तब हम दोनों सहपाठी वसुराजा को प्रामाणिक मानकर इस विषय में उसके पास निर्णय लेने के लिए चलेंगे। उस सत्यवादी का निर्णय दोनों को मान्य करना होगा।' नारद ने उस शर्त को और उस संबंध में वसुराजा द्वारा दिये हुए निर्णय को मानना स्वीकार किया, क्योंकि 'सांच को आंच नहीं!' सत्य बोलने वाले को भय और क्षोभ नहीं होता। पर्वत की माता ने जब दोनों का विवाद और परस्पर शर्त लगाने की बात सुनी तो वह बहुत चिंतित हुई और अपने पुत्र पर्वतक को एकांत में ले जाकर कहा- 'बेटा! जब मैं घर का कार्यकर रही थी, तब तेरे पिता के मुंह से मैंने 'अज' शब्द का अर्थ तीन साल पुराना धान्य ही सुना था। तूने जीभ कटाने की जो शर्त लगायी है, वह अहंकार और हठ से युक्त है। यह काम तूंने बहुत अनुचित किया है। बिना विचारे कार्य करने वाला अनेक संकटों से घिर जाता है।' पर्वत ने जरा सहमते हुए कहा-'माताजी! अब तो मैं आवेश में आकर जो कुछ कर चुका. वह कर चुका। अब आप बताइये कि फैसला हमारे पक्ष में किसी सूरत से हो सके, ऐसा कोई उपाय नहीं? पर्वत पर भविष्य में आने वाले भयंकर संकट की आशंका से पीड़ित व कांटे चुभने के समान व्यथित हृदय से माता सीधी वसराजा के पास पहंची। पत्र के लिए क्या-क्या नहीं किया जाता? गरुपत्नी को देखते ही वसराजा ने प्रणाम करते हुए कहा-'माताजी! आओ, पधारो! आपको देखने से ऐसा लगता है, मानो आज मुझे साक्षात् गुरुश्री क्षीरकदंबक के ही दर्शन हुए है। कहिए, मैं आपके लिए क्या करूँ? क्या दूँ?' 'तब ब्राह्मणी ने कहा-'पृथ्वीपती! मुझे पुत्रभिक्षा चाहिए, केवल इसी एक चीज की जरूरत है, बेटा! पुत्र के चले जाने पर धन-धान्य आदि दूसरे पदार्थों के होने से क्या लाभ?' वसु ने कहा-'माताजी! पर्वत मेरे लिये पूज्य है; उसकी सुरक्षा मुझे करनी चाहिए। श्रुति में कहा है-'गुरु के पुत्र के साथ गुरु के समान वर्ताव करना चाहिए।' अकाल में रोष करने वाले यमराज ने आज किसके नाम की चिट्ठी निकाली है? माताजी! मुझे बताओ कि मेरे बंधु को कौन मारना चाहता है? मेरे रहते आप क्यों चिंता करती है?' तब पर्वत की माता ने कहा-अज-शब्द के अर्थ पर पर्वत और नारद दोनों में विवाद छिड़ गया। इस पर मेरे पुत्र पर्वत ने | यह शर्त लगायी है कि यदि 'अज' का अर्थ बकरा न हो तो मैं जीभ कटाऊँगा और 'बकरा' हो तो तुम जीभ कटाना। इस विवाद के निर्णय कर्ता प्रमाण पुरुष के रूप में दोनों ने तुम्हें माना है। इसलिए मैं तुमसे प्रार्थना करने आयी हूं कि अपने बंधु की रक्षा करने हेतु 'अज' शब्द का अर्थ बकरा ही करना। महापुरुष तो प्राण देकर भी परोपकार करने वाले होते हैं, तो फिर वाणी से तुम इतना-सा परोपकार नहीं करोगे?' यह सुनकर वसुनृप ने कहा-'माताजी! यह तो असत्य बोलना होगा। मैं असत्य-वचन कैसे बोल सकता हैं? प्राणनाश का अवसर आने पर भी सत्यवादी असत्यं नहीं बोलते। दूसरे लोग कुछ भी बोलें, परंतु पापभीरु को तो हर्गिज नहीं बोलना चाहिए और फिर गुरुवचन के विरुद्ध बोलना या झूठी साक्षी देना, यह बात भी मुझसे कैसे हो सकती है?' पर्वत की माता ने रोष में आकर कहा-'तो फिर दो रास्ते | | हैं तेरे सामने-यदि परोपकारी बनना है तो गुरुपुत्र की रक्षा करके उसका कल्याण करो और स्वार्थी ही रहना है तो सत्यवाद का आग्रह रखो।' इस प्रकार बहुत जोर देकर कहने पर वसुराजा ने उसका वचन मान्य किया। क्षीरकदंबक की पत्नी हर्षित होकर घर चली आयी।
ठीक समय पर विद्वान नारद और पर्वत दोनों निर्णय के लिए वसराजा की राजसभा में आये। सभा में दोनों वादियों के सत्य-असत्य रूप क्षीर-नीरवत् भलीभांति विवेक करने वाले उज्ज्वल प्रभावान् माध्यस्थ गुण वाले सभ्य लोग | एकत्रित हुए। सभापति वसुराजा एक स्वच्छ स्फटिक शिला की वेदिका पर स्थापित सिंहासन पर बैठा हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो पृथ्वी और आकाश के बीच में सूर्य हो। उसके बाद नारद और पर्वत ने वसुराजा के सामने 'अज' शब्द पर अपनी-अपनी व्याख्या प्रस्तुत की और कहा-'राजन्! हम दोनों के बीच में आप निर्णायक हैं, आप इस शब्द का यथार्थ अर्थ कहिए। क्योंकि ब्राह्मणों और वृद्धों ने कहा है-'स्वर्ग और पृथ्वी इन दोनों के बीच में जैसे सूर्य है, वैसे ही हम दोनों के बीच में आप मध्यस्थ हैं; दोनों के विवाद में निर्णायक है। अब आप ही प्रमाणभूत हैं। आपका जो निर्णय होगा, वही हम दोनों को मान्य होगा। सत्य या शपथ के लिए हाथ में उठाया जाने वाला गर्मागर्म दिव्य घट या लोहे का गोला वास्तव में सत्य के कारण स्थिर रहता है। सत्य पर ही पृथ्वी आधारित है, धुलोक भी सत्य पर प्रतिष्ठित
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