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वसुराजा की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ६० घर में प्रवेश करने से पहले ही बैल की तरह उन्होंने घेर लिया और बांधकर पकड़ लिया। जैसे रात्रि व्यतीत होने पर सूर्य अपने तेज के साथ प्रकट होता है वैसे ही भूतपूर्व राजा उसी समय प्रकट हुआ। उसे प्रजाजनों ने राजगद्दी पर पुनः बिठा दिया था। पिटारी से निकलकर भागते हुए सर्प के समान दुष्ट दत्त को देखते ही भूतपूर्व राजा की क्रोधाग्नि भड़क उठी। उसने नरककुंभी के समान चांडाल की कुंभी (भट्टी) में दत्त को पकड़कर डाला और नीचे से उसमें आग लगा दी। कुंभी गर्म होने लगी तब रोते-चिल्लाते दत्त को शिकारी कुत्तों ने झपटकर फाड़कर उसी तरह मार डाला, जैसे नरक में परमाधार्मिक असुर नारकों को फाड़कर मारते है।
इधर भूतपूर्व राजा ने कालकाचार्य जैसे सत्यवादी को कारागार से मुक्त किया। जिस तरह कालकाचार्य राजभय से, किसी के आग्रह या मुलाहिजे में आकर झूठ नहीं बोले, न झूठी चापलुसी की; बल्कि अपने सत्यमहाव्रत की प्रतिज्ञ पर दृढ़ रहे, इसी तरह बुद्धिमान पुरुष कदापि झूठ न बोले और अपने सत्य महाव्रत को सुरक्षित रखे। असत्य बोलने से वसुराजा की दुर्गति :.. चेदी देश में शुक्तिमती नदी के किनारे उसकी क्रीड़ासखी की तरह शुक्तिमती नगरी बसी हुई थी। वहां अपने तेज से अद्भुत माणिक्य-रत्न के समान, पृथ्वी के मुकुट के तुल्य अभिचंद्र राजा राज्य करता था। पांडुराजा के यहां जैसे सत्यवादी युधिष्ठिर पैदा हुए थे, वैसे ही राजा अभिचंद्र के यहां सत्यवादी वसु का जन्म हुआ। किशोर-अवस्था होते ही वसुराजकुमार को क्षीरकदंबक गुरु के पास पढ़ने भेजा। उस समय क्षीरकदंबक उपाध्याय के पास उनका पुत्र पर्वत, राजपुत्र वसु और विद्यार्थी नारद ये तीनों साथ-साथ अध्ययन करते थे। एक बार ये तीनों विद्यार्थी अध्ययन के परिश्रम के कारण थककर मकान की छत पर सो गये। उस समय आकाश में उड़कर जाते हुए जंघाचारी मुनियों ने इन्हें देखकर परस्पर कहा-'इन तीनों में से एक स्वर्ग में जायेगा और दो नरक में जायेंगे।' क्षीरकदंबक उपाध्याय ने यह वार्तालाप सुना और वे गहरी चिंता में डूब गये। उन्हें खेद हुआ कि 'मैं इनका अध्यापक और मेरे पढ़ाये हुए विद्यार्थी नरक में जायें! कैसी भवितव्यता! फिर भी मुझे यह तो पता लगा लेना चाहिए कि इनमें से कौन स्वर्ग में जायेगा और कौन नरक में जायेंगे?' अतः उन्होंने अपनी सुझबूझ से कुछ विद्या और युक्ति से लाक्षारस से परिपूर्ण आटे के तीन मूर्गे बनाये। एक दिन तीनों विद्यार्थियों को अपने पास बुलाया और प्रत्येक को एक-एक मूर्गा देते हुए कहा-'इसे ले जाओ और इसका वध ऐसी जगह ले जाकर करना, जहां कोई न देखता हो।'
वसु और पर्वत दोनों अपने-अपने मुर्गे को लेकर नगरी के बाहर अलग-अलग दिशा में ऐसे एकांत स्थान में| पहुंचे, जहां मनुष्यों का आवागमन बिलकुल नहीं होता था। अतः उन्होंने यह सोचकर कहा कि यहां कोई देखता नहीं है, अपने-अपने मुर्गे को खत्म कर दिया। महात्मा नारद अपने मुर्गे को लेकर एकांत जनशून्य प्रदेश में पहुंचा, लेकिन | वहां उसने इधर-उधर देखकर सोचा कि गुरुजी ने आज्ञा दी है कि 'जहां कोई न देखे वहां इ तो यह मुर्गा मुझे देख रहा है, मैं इसे देख रहा हूं; आकाशचारी पक्षी वगैरह देख रहे हैं, लोकपाल देखते हैं और कोई नहीं देखता है तो भी ज्ञानी तो देखते ही होंगे; उनसे तो अंधरी से अंधेरी जगह में भी गुप्त रूप से की हुई कोई भी बात छिपी नहीं रहती। अतः मैं इस मुर्गे का वध किसी भी जगह नहीं कर सकता, तब फिर गुरुजी की आज्ञा का पालन कैसे होगा?' यों चिंतनसागर में गोते लगाते-लगाते नारद को एकाएक ज्ञान का प्रकाश हुआ, हो न हो, सदा हिंसापरांगमुख दयालु गुरुजी ने हमारी परीक्षा के लिए मुर्गा दिया है, मारना चाहते तो वे स्वयं मार सकते थे। हम तीनों को एक-एक मुर्गा देकर मार लाने की आज्ञा दी है, उसके पीछे गुरुजी का आशय हमारी अहिंसा बुद्धि की की है। उनकी आज्ञा का तात्पर्य यही है-'मर्गे का वध न करना।' मैं इसे नहीं मारूंगा।' यों निश्चय करके नारद मर्गे को मारे बिना ही लेकर गुरुजी के पास आया। और गुरुजी से मुर्गा न मार सकने का कारण निवेदन किया। गुरुजी ने मन ही मन निश्चय किया कि यह अवश्य ही स्वर्ग में जायेगा और नारद को स्नेहपूर्वक छाती से लगाया एवं ये उद्गार निकाले-अच्छा, अच्छा, बहुत अच्छा किया बेटे! __कुछ ही देर बाद वसु और पर्वत भी आ गये। उन्होंने–'लीजिए गुरुजी! हमने आपकी आज्ञा का पालन कर दिया। जहां कोई नहीं देखता था, उसी जगह ले जाकर अपने-अपने मुर्गे को मारकर लाये हैं। गुरु ने उपालंभ के स्वर में कहा
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