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कलिकाचार्य की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ६० अपनी इच्छानुसार बेरोकटोक प्रवृत्ति करने के उद्देश्य से वह राजा की सेवा में रहने लगा। राजा ने भी छाया के समान साथ रहने वाले अपने पारिपाश्विक सहयोगियों में उसे मुखिया बना दिया। बढ़ती हुई जहरीली बेल को जरा-सा पेड़ का सहारा मिल जाय तो वह आगे से आगे बढ़ती या ऊपर फैलती ही जाती है।' यही हाल दत्त का हुआ। इसने किसी न किसी युक्ति से भेदनीति से प्रजा को भड़काकर राजा को देश-निकाला दिलवा दिया। और 'पापात्मा और कबूतर दोनों अपने आश्रय को उखाड़ते ही है। राजा को इस प्रकार निर्वासित करके वह पापात्मा दत्त स्वयं राजगद्दी पर बैठ गया। नीच व्यक्ति को पैर के अग्रभाग का जरा-सा सहारा देने पर वह धीरे-धीरे सिर तक चढ़ जाता है। अब तो दत्त धर्मबुद्धि से पशुवध पूर्वक महायज्ञ करने लगा, मानो पाप रूपी धुंएँ से सारे विश्व को मलिन कर रहा हो। एक बार मूर्तिमान संयम स्वरूप दत्त के मामा श्रीकालिकाचार्य विचरण करते हुए उस नगरी में पधारें।
मिथ्यात्व से मूढ़ बने हुए राजा दत्त की आचार्य के पास जाने की कतई ईच्छा नहीं थी, किन्तु माता के अत्यंत | दबाव से वह गृहस्थ पक्षीय मामा (आचार्य) के पास अनमने भाव से पहुंचा। वहां जाते ही शराब के नशे में चूर उन्मत्त के समान उद्धतता-पूर्वक उसने आचार्य से पछा-'आचार्यजी! यदि आप ज्ञाता हों तो यज्ञ का फल बताइए। यह सुनकर श्रीकालिकाचार्य ने कहा-'भद्र! यदि तुम धर्म के विषय में पूछ रहे हो तो सुनो। जो अपने लिये अप्रिय है, वह व्यवहार दूसरों के प्रति भी नहीं करना, यही सबसे बड़ा धर्म है।' दत्त ने अपनी बात को पुनः दोहराते हुए कहा-'अजी! मैं तो यज्ञ का फल पूछ रहा हूं। आप बताने लगे धर्म की बात।' इस पर आचार्यश्री ने कहा-हिंसादिमूलक यज्ञ जीवन के लिए कल्याणकारी नहीं है, प्रत्युत उससे पापकर्म का ही बंध होता है।' इससे उसका समाधान हो जाना चाहिए था, लेकिन आचार्य को उत्तेजित करने को दृष्टि से दुर्बुद्धि दत्त ने फिर वही बात पूछी-'हिंसा-अहिंसा की बातें तो भोले लोगों को बहकाने की-सी है। मुझे तो आप दो टूक उत्तर दीजिए कि 'यज्ञ का फल क्या है?' आचार्यश्री ने सहजभाव से उत्तर दिया- 'ऐसे यज्ञ का फल नरक है।' इस पर क्रुद्ध होकर दत्त ने कहा- 'मुझे कैसे विश्वास हो कि इस यज्ञ का फल नरक ही मिलेगा? तब भविष्यदृष्टा आचार्य ने उसे उतने ही प्रेम से उत्तर दिया-'वत्स! विश्वास तो तुम्हें तब हो ही जायेगा, जब आज से सातवें दिन तुम चांडाल की श्वान-कुंभी में पकाये जाओगे।' इस पर दत्त क्रोध से उछलता
और आँखें लाल करके भौहें तानते हुए भूताविष्ट की तरह बोला-इसका क्या प्रमाण है? कालिकाचार्य ने सज्जनता पूर्वक उत्तर दिया-'इसका प्रमाण यह है कि चांडाल की कुंभी में पकाये जाने से पहले तुम्हारे मुंह में एकाएक विष्ठा पड़ेगी?' रोष में आकर दत्त ने उद्दण्डता से पूछा-तो बताओ! तुम्हारी मौत कैसे और कब होगी? आचार्य ने कहा| - 'मैं किसी के हाथ से नहीं मारा जाऊँगा। मेरी मृत्यु अपने समय पर स्वाभाविक रूप से होगी; और मरकर मैं स्वर्ग में जाऊँगा।' दत्त ने आगबबूला होकर अपने सेवकों को आदेश दिया-इस दुर्बुद्धि नालायक आचार्य को गिरफ्तार कर लो और कैद में डाल दो. ताकि वहां पड़ा-पडा सडता रहे!' आज्ञा मिलते ही सेवकों ने कालिकाचार्य को पकड़कर कैद में डाल दिया।
इधर पापकर्मी दत्त से क्षुब्ध एवं पीड़ित सामंतों ने भूतपूर्व राजा को बुलाकर राज्य सौंपने का निश्चय किया। आशंकाग्रस्त दत्त भी सिंहगर्जना से डरकर झाड़ियों में छिपे हुए हाथी की तरह अपने घर में छिपकर रहा। दैवयोग से दत्त ने सातवें दिन को भूल से आठवां दिन समझकर कोतवाल आदि को पहले से ही राजमार्ग पर चौकी-पहरे की व्यवस्था का आदेश देकर सुरक्षा का प्रबंध करवाया। ठीक सातवें दिन दुष्ट दत्त यह दुर्विचार करके घोड़े पर सवार होकर बाहर निकला कि 'आज उस दुष्ट मुनि को पशु की तरह मारकर मजा चखा दूंगा।' उधर दत्त से पहले ही प्रातःकाल एक माली फूलों का टोकरा लिये नगर में प्रवेश कर रहा था कि रास्ते में उसे जोर से टट्टी की हाजत हुई। उसने हाजत को रोकना उचित न समझकर सड़क के किनारे ही जरा-सी ओट में टट्टी बैठकर कहीं सिपाही न पकड़ ले, इस डर से उस पर कुछ फूल डालकर उसे ढक दी और आगे चल दिया। कुछ ही देर के बाद दत्त का घोड़ा तेजी से दौड़ा आ रहा था कि एकाएक दौडते हुए घोड़े के एक खुर से उछलकर माली की वह विष्टा दत्त के मुंह में जा पड़ी। सच है, | महाव्रती संयमी की वाणी मिथ्या नहीं होती। शिला से आहत की तरह दत्त भी इस अप्रत्याशित घटना से निराश और | ढीला होकर सामंतों को कुछ कहे-सुने बिना ही अपने स्थान की ओर वापिस लौट चला। दत्त को वापिस आते देख प्रजाजनों ने सोचा-इसे अपनी गुप्त मंत्रणा का कुछ भी पता नहीं है। अतः अपनी पूर्व निर्धारित योजनानुसार दत्त को
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