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असत्य के चार भेद एवं असत्य के फल
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ५७ से ८० __व्याख्या :- क्लिष्ट आशय (गलत अभिप्राय) से असत्य बोलने की बात तो दूर रही, अज्ञान, संशय, भ्रांति, मजाक, गफलत आदि प्रमाद के वश भी असत्य न बोले। प्रमाद से असत्य वचन बोलने से वह उसी तरह श्रेयस्कर कार्यों को उखाड़ फेंकता है, जिस तरह प्रचंड अंधड़ बड़े-बड़े पेड़ों को उखाड़ फेंकता है। महर्षियों ने आगम में कहा है-जिस साधक को भूतकाल की बात का वर्तमान काल के तथ्य का और भविष्य में होने वाली घटना का यथार्थ रूप से पता न हो, वह 'यह ही है' इस प्रकार की निश्चयकारी भाषा न बोले। भूत, भविष्य और वर्तमान काल में हुई, होने वाली या हो रही जिस बात के बारे में उसे शंका हो, उसे भी यह इसी तरह है इस प्रकार की निश्चयात्मक भाषा में | न कहे; अपितु अतीत, अनागत और वर्तमान काल में घटित हुए या होने वाले, या हो रहे जिस पदार्थ के बारे में शंका न हो, उसके बारे में यह ऐसा है', इस प्रकार कहे। (दश वै. ९ / ८,९,१०)
इस प्रकार के असत्य के चार भेद होते हैं-१. भूतनिह्नव - जो पदार्थ विद्यमान है, उसका छिपाना या अपलाप करना। जैसे आत्मा नहीं है, 'पुण्य-पाप, परलोक आदि कुछ भी नहीं है। २. अभूतसद्भावन - जो पदार्थ नहीं है, या जिस प्रकार का नहीं है, उसे विद्यमान या तथा प्रकार का बताना। जैसे यह कहना कि प्रत्येक आत्मा सर्वज्ञ है, या 'सर्वव्यापक' है अथवा 'आत्मा श्यामक चावल के दाने जितना है या वैसा है। ३. अर्थातर - एक पदार्थ को दूसरा पदार्थ बतलाना। जैसे-गाय को बैल और बैल को घोड़ा कहना। ४. गर्हा - सावध, अप्रिय और आक्रोश के वश कोई बात कहना। इस दृष्टि से गर्दा के तीन भेद होते हैं। सावध (पापमय) भावना से प्रेरित होकर कथन-जैसे इसे मार डालो, | इसे मजा चखा दो, अप्रिय-भावना से प्रेरित होकर कथन-जैसे यह काना है, यह ढेढ़ है, यह चोर है, यह मुर्दा या मरियल है। आक्रोशवश बोलना-जैसे-'अरे यह तो कुलटा का पुत्र है।' लुच्चे, बदमाश, बेईमान, नीच, हरामजादे! आदि संबोधन भी आक्रोश सूचक है ।।५७।। __असत्य वचन सर्वथा त्याज्य है, यह बताकर अब असत्य से इहलोक में होने वाले दोषों का विवरण प्रस्तुत करते हैं।११४। असत्यवचनाद् वैर, - विषादाप्रत्ययादयः । प्रादुःषन्ति न के दोषाः कुपथ्याद् व्याधयो यथा ।।५८।। अर्थ :- असत्य वचन बोलने से वैर, निरोध, पश्चात्ताप, अविश्वास राज्य आदि में अवमानता, बदनामी आदि दोष
पैदा होते हैं। जैसे कुपथ्य (बदपरहेजी) करने से अनेकों रोग पैदा हो जाते हैं, वैसे ही असत्य बोलने से
कौन-से दोष ऐसे हैं, जो पैदा नहीं होते? अर्थात् असत्य से भी संसार में अनेक दोष पैदा होते हैं ।।५८।। अब मृषावाद से परलोक में होने वाला फल बताते है।११५। निगोदेष्वथ तिर्यक्षु, तथा नरकवासिषु । उत्पद्यन्ते मृषावादप्रसादेन शरीरिणः ॥५९॥ अर्थ :- असत्य-कथन के प्रताप से प्राणी दूसरे जन्मों में अनंतकायिक निगोद जीवयोनियों में, तियचयोनियों में
. अथवा नरकावासों में उत्पन्न होते हैं ।।५९।। अब असत्य वचन का त्याग करने वाले कालिकाचार्य एवं असत्य बोलने वाले वसुराजा का दृष्टांत देकर असत्य से विरति की प्रेरणा देते हैं।११६। ब्रूयाद् भियोपरोधाद् वा, नासत्यं कालिकार्यवत् । यस्तु ब्रूते स नरकं, प्रयाति वसुराजवत् ॥६०॥ अर्थ :- कालिकाचार्य कतई असत्य न बोले, उसी तरह मृत्यु या जबर्दस्ती (दबाव) आदि के भय से अथवा
किसी के अनुरोध या लिहाज-मुलाहिजे में आकर कतई असत्य न बोले। परंतु उपर्युक्त कारणों के
वशीभूत होकर जो असत्य बोलता है, वह वसुराजा की तरह नरक में जाता है ।।६०॥ दोनों दृष्टांत क्रमशः इस प्रकार हैसत्य पर दृढ़ कालिकाचार्य :
प्राचीनकाल में पृथ्वीरमणी के मुकुटमणि के सामन तुरमणी नाम की एक नगरी थी, जहां जितशत्रु नामक राजा | राज्य करता था। इसी नगरी में रुद्रा नाम की एक ब्राह्मणी रहती थी। उसके एक पुत्र था, जिसका नाम दत्त था। दत्त अत्यंत उच्छृखल, जुआरी और शराबी था। इन्हीं दुर्व्यसनों में मस्त रहने में वह आनंद मानता था। स्वच्छंदतापूर्वक
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