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वसुराजा की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ६ | 'पापात्माओ! तुमने मेरी आज्ञा पर ठीक तरह से विचार नहीं किया। जिस समय तुमने मुर्गे को मारा, क्या उस समय तुम उसे नहीं देखते थे? या वह तुम्हें नहीं देख रहा था? क्या आकाशचारी पक्षी आदि खेचर नहीं देखते थे?' खैर, तुम अयोग्य हो। क्षीरकदंबक ने निश्चय किया कि ये दोनों नरकगामी प्रतीत होते हैं। तथा उनके प्रति उदासीन होकर उन दोनों को अध्ययन कराने की रुचि खत्म हो गयी। विचार करने लगे-वसु और पर्वत को पढ़ाने का सच्चे गुरु का उपदेश पात्र के अनुसार फलित होता है। बादलों का पानी स्थानभेद के कारण ही सीप के मुंह में पड़कर मोती बन जाता है और वही सांप के मुंह में पड़कर जहर बन जाता है, या ऊषर भूमि या खारी जमीन पर या समुद्र में पड़कर खारा बन जाता है। अफसोस है, मेरा प्रिय पुत्र और पुत्र से बढ़कर प्रिय शिष्य वसु दोनों नरक में जायेंगे।
में रहने से क्या लाभ? इस प्रकार विचार करते-करते क्षीरकदंबक उपाध्याय को संसार से विरक्ति हो गयी। उन्होंने तीव्र वैराग्य पूर्वक गुरु से दीक्षा ले ली। अब उनका स्थान उनके व्याख्याविचक्षण पुत्र पर्वत ने ले लिया। गुरु-कृपा से सर्वशास्त्रविशारद बनकर शरदऋतु के मेघ के समान निर्मलबुद्धि से युक्त नारद अपनी जन्मभूमि में चले गये। राजाओं में चंद्र समान अभिचंद्र राजा ने भी उचित समय पर मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। उनकी राजगद्दी पर वसुदेव के समान वसुराजा विराजमान हुए। वसुराजा इस भूतल पर सत्यवादी के रूप में प्रसिद्ध हो गया। वसुराजा अपनी इस प्रसिद्धि की सुरक्षा के लिए सत्य ही बोलता था। एक दिन कोई शिकारी शिकार खेलने के लिए विन्ध्यपर्वत पर गया। उसने एक हिरन को लक्ष्य करके तीर छोड़ा; किन्तु दुर्भाग्य से वह तीर बीच में ही रुककर गिर पड़ा। तीर के बीच में ही गिर जाने का कारण ढूंढने के लिए वह घटनास्थल पर पहुंचा। हाथ से स्पर्श करते ही उसे मालूम हुआ कि आकाश के समान स्वच्छ कोई स्फटिक शिला है।' अतः उसने सोचा- 'जैसे चंद्रमा में भूमि की छाया प्रतिबिम्ि तरह इस शिला के दूसरी ओर प्रतिबिंबित हिरण को मैंने देखा है।' हाथ से स्पर्श किये बिना किसी प्रकार इस शीला को जाना नहीं जा सकता। अतः यह शिला अवश्य ही वसु राजा के योग्य है। यों सोचकर शिकारी ने चुपचाप वह शिला उठायी और वसुराजा के पास पहुंचकर उन्हें भेंट देते हुए शिला प्राप्त होने का सारा हाल सुनाया। राजा वसु सुनकर और गौर से शिला को क्षण भर देखकर बहत खश हआ। उस शिकारी को उसने बहत-सा इनाम देकर विदा किया। राजा ने उस शिला की गुप्त रूप से राजसभा में बैठने योग्य एक वेदिका बनायी और वेदिका बनाने वाले कारीगर को मार दिया।' सच है राजा कभी किसी के नहीं होते। वेदिका पर राजा ने एक सिंहासन स्थापित कराया। इसके रहस्य से अनभिज्ञ लोग यह समझने लगे कि सत्य के प्रभाव से वसु राजा का सिंहासन अधर रहता है। सत्य से प्रसन्न होकर देवता भी इस राजा की सेवा में रहते हैं। इस प्रकार वसु राजा की उज्ज्वल कीर्ति प्रत्येक दिशा में फैल गयी। उस प्रसिद्धि के कारण भयभीत बने हुए अन्य राजा वसुनृप के अधीन हो गये। 'प्रसिद्धि सच्ची हो या झूठी, राजाओं को विजय दिलाती ही है।' ___एक दिन नारद पर्वत के आश्रम में मिलने आया। तब उसने बुद्धिशाली पर्वत को अपने शिष्यों को ऋग्वेद की व्याख्या पढ़ाते हुए देखा। उस समय 'अजैर्यष्टव्यम्' सूत्र आया तो उसकी व्याख्या करते हुए 'अज' शब्द का अर्थ
रा' यह सुनकर नारद ने पर्वत से कहा-'बंधुवर! इस अर्थ के कहने में तुम्हारी कहीं भूल हो रही है। तमने भ्रांतिवश अज का बकरा अर्थ किया है. जो नहीं होता है। अज का वास्तविक अर्थ होता है-'तीन साल का पराना धान्य, जो ऊग न सके। हमारे गुरुदेव ने भी अज का अर्थ धान्य ही किया था। क्या तुम उसे भूल गये?' उस समय प्रतिवाद करते हुए पर्वत ने कहा-'तुम जो अर्थ बता रहे हो, वह अर्थ पिताजी ने नहीं किया था। उन्होंने 'अज' शब्द का अर्थ बकरा ही किया था। और कोष में भी यही अर्थ मिलता है।' तब नारद ने कहा-'भाई! किसी भी शब्द के गौण और मुख्य दो अर्थ होते हैं। गुरुजी ने हमें 'अज' शब्द के विषय में गौण अर्थ कहा था। गुरुजी धर्मसम्मत उपदेश देने वाले थे। श्रुति भी धर्म स्वरूपा ही है। इसलिए मित्र! श्रुतिसम्मत और गुरूपदिष्ट दोनों अर्थों के विपरीत बोलकर तुम क्यों पाप-उपार्जन कर रहे हो? पर्वतक ने अब इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और हठाग्रह पूर्वक कहा'गुरुजी ने अजान्मेषान् श्रुतिवाक्य में अज का अर्थ बकरा ही बताया है। गुरुजी के बताये हुए अर्थ का अपलाप करके क्या तुम धर्म-उपार्जन करते हो?' अभिमानयुक्त मिथ्यावाणी मनुष्य को दंड या भय देने वाली नहीं होती। अतः
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