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सुलस की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ३० हैं। क्या बताऊँ, आज तक ऐसा आनंद नहीं आया, जितना आज आया है। अब तक तुमने मुझे इन सुखों से वंचित क्यों रखा?' पिता के विस्मयोत्पादक वचन सुनकर सुलस ने मन ही मन विचार किया-'ओह! इस जन्म में ही जब यह इतने पापों का फल प्रत्यक्ष भोगता दिखायी दे रहा है तो परलोक में नरक आदि में क्या हाल होगा?' सुलस के यों सोचते-सोचते ही कालसौकरिक ने सदा के लिए आँखें मूंद ली। वह मरकर अप्रतिष्ठान नामक सप्तम नरक में पहुंचा। ___पिता की मरणोत्तरक्रिया करने के बाद स्वजनों ने सुलस से कहा- 'वत्स! अब तूं अपने पिता के स्थान पर बैठकर उनके कारोबार (कार्य) को संभाल ले, ताकि तेरे कारण हम सनाथ बने रहे।' इस पर सुलस ने उन्हें जवाब दिया| 'मैं यह कार्य कदापि नहीं अपनाऊंगा। मैंने पिताजी को इसी जन्म में इन क्रूरकर्मों का कटु फल पाते देखा है, अगले जन्मों में तो उन्हें और भी घोर कटुफल मिलेगा। जैसे मुझे अपने प्राण प्रिय लगते हैं, वैसे ही दूसरे प्राणियों को भी अपने-अपने प्राण प्यारे है। अतः अपने प्राण टिकाने के लिए दूसरे जीवों के प्राणों का नाश करना बहुत ही बुरा काम है। धिक्कार है, ऐसे प्राणिशत्रओं और अन्य घातकों को। हिंसा का ऐसा कटफल प्रत्यक्ष देखकर हिंसामय आजीविका को कौन करने को तैयार होगा? जिस फल से सीधे मौत को न्योता देना हो, भला उस किंपाकफल को खाकर जानबुझकर कौन मृत्यु के मुख में जाना चाहेगा? यह सुनकर वे स्वजन फिर आग्रह करने लगे-'सुलस! अगर प्राणिवध से पाप लगेगा तो तुझे अकेले को थोड़े ही लगेगा? जैसे पैतृक धन सभी पारिवारिक जन आपस में बांट लेते हैं, वैसे ही पाप का फल हम बांट लेंगे। तुम पहले सिर्फ एक भैंसे को मारो। उसके बाद और पशुओं को तो हम मार लेंगे। इससे तुम्हें बहुत ही थोड़ा-सा पाप लगेगा।' दूसरे के प्राणों को चोट पहुंचाने से कितना दुःख होता है, इसका अनुभव करने के लिए सुलस ने तीखा कुल्हाड़ा अपनी जांघ पर मारा, जिससे वह गश खाकर तुरंत गिर पड़ा। होश में आया तब करुण विलाप करता हुआ सुलस आर्तस्वर में चिल्लाया-'हाय बाप रे! कुल्हाड़े की इस कठोर चोट से मैं घायल होकर अभी तक बहुत बेचैन हूं इसकी पीड़ा से! अरे बंधुओं! कोई मेरी इस वेदना को तो बांट लो, जिससे यह कम हो जाये। मेरा दुःख लेकर कोई मुझे इस दुःख से बचाओ! हाय मैं मरा रे!' सुलस को पीड़ा से आर्तनाद करते देखकर पास में खड़े | हुए बंधुओं ने उससे कहा-'भाई! क्या कोई किसी की पीड़ा ले सकता है, या किसी के दुःख में हाथ बंटा सकता है?' इस पर सुलस ने उन्हें खरी खरी सुना दी-'बंधुओ! जब तुम सब लोग मिलकर मेरी इतनी-सी पीड़ा नहीं ले सकते |तो नरक की पीड़ा में कैसे हिस्सा बंटा लोगे? सारे कुटुंब के लिए पापकर्म करके घोर नरक की वेदना मुझे अकेले को | ही परलोक में भोगनी पड़ेगी, आप सब कटंब कबीले वाले यहीं रह जायेंगे। इसलिए चाहे वंश परंपरा से मेरे परिवार में हिंसा कर्म प्रचलित हो, लेकिन मैं ऐसी हिंसा कतई नहीं करूंगा। अगर किसी का पिता अंधा हो तो क्या पुत्र को भी अंधा बन जाना चाहिए?' जिस समय सुलस पीड़ा से भरे ये उद्गार निकाल रहा था, ठीक उसी समय उससे सुखशांति के समाचार पूछने और उसकी संभाल लेने राजपुत्र अभयकुमार वहां आ पहुंचे थे। सुलस को छाती से लगाते हुए उसने कहा-'शाबास सूलस! तूं ने बहुत ही बढ़िया काम किया है। मैंने तुम्हारी सभी बातें ध्यानपूर्वक सुनी हैं, तभी तो मैं खुश होकर तुम्हें धन्यवाद देने के लिए आया हूं। वंशपरंपरा के पाप-पंक में फंसने की अपेक्षा तूं ने दूर से ही उसका परित्यागकर दिया है। इसलिए वास्तव में तेरा जीवन धन्य हो उठा है, तूं वास्तव में प्रशंसनीय है। हम तो गुणों के पक्षपाती है।' इस प्रकार धर्मवत्सल राजकुमार अभयकुमार मधुर वचनों से उसका अभिनंदन करके अपने स्थान को लौट गया।
इधर दुर्गतिभीरु सुलस ने बंधुवर्ग के कथन को बिलकुल नहीं मानकर धीरे-धीरे श्रावक के १२ व्रत अंगीकार
रेद्र को ऐश्वर्यप्राप्ति की तरह सुलस को भी धर्मधन की प्राप्ति हुई। सच है, कालसीकरिक के पुत्र सुलस की तरह कुलपरंपरा से प्रचलित हिंसा कर्म का जो त्याग करता है, स्वर्ग संपत्ति उसके लिए कुछ भी दूर नहीं है। वस्तुतः वह श्रेयःकार्य का अधिकारी बनता है ॥३०॥
हिंसा करने वाला कितना ही इंद्रियदमन आदि कर ले, लेकिन न तो वह नये सिरे से पुण्योपार्जन ही कर सकता है; आर न ही पाप का प्रायश्चित्त कर आत्मशुद्धि कर सकता है। इस संबंध में कहते हैं
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