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हिंसोपदेशक व्यक्ति और तथाकथित उपदेश की निंदा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ३१ से ३५ ।८७। दमो देवगुरुपास्तिर्दानमध्ययनं तपः । सर्वमप्येतदफलं, हिंसा चेन्न परित्यजेत् ॥३१॥ अर्थ :- जब तक कोई व्यक्ति हिंसा का त्याग नहीं कर देता, तब तक उसका इंद्रियदमन, देव और गुरु की
उपासना, दान शास्त्राध्ययन और तप आदि सब बेकार है, निष्फल है ।।३१।। व्याख्या :- शांति की कारणभूत अथवा कुलपरंपरा से प्रचलित हिंसा का त्याग नहीं किया जाता, तब तक इंद्रियदमन, देव और गुरु की उपासना, सुपात्र को दान, धर्मशास्त्रों का अध्ययन, चांद्रायण आदि कठोर तप इत्यादि शुभ धर्मानुष्ठान भी पुण्योपार्जन और पाप क्षय आदि कोई सुफल नहीं लाते, सभी निष्फल जाते हैं। इसलिए मांस-लुब्ध पारिवारिक लोगों की सुखशांति के लिए या रूढ़ कुलाचार के पालन के लिए की जाने वाली हिंसा का निषेध किया है।।३१।। अब शास्त्रजनित हिंसा का निषेध करने की दृष्टि से शास्त्र द्वारा उसका खंडन करते हैं।८८। विश्वस्तो मुग्धधीर्लोकः, पात्यते नरकावनौ । अहो नृशंसैर्लोभान्धैहिंसाशास्त्रोपदेशकैः ॥३२॥ अर्थ :- अहो! निर्दय और लोभांध हिंसाशास्त्र के उपदेशक इन बेचारे मुग्ध बुद्धि वाले भाले-भाले विश्वासी लोगों
को वाग्जाल में फंसाकर या बहकाकर नरक की कठोर भूमि में डाल देते हैं ।।३।। व्याख्या :- दयालु व्यक्ति कभी हिंसा का उपदेश नहीं देते या हिंसा के उपदेश से परिपूर्ण शास्त्रों की रचना नहीं करते। मगर बड़ा अफसोस है कि निर्दय और लोभांध हिंसापरक शास्त्रों के उपदेष्टा, मनु आदि मांस खाने के लोभ में अंधे बने हुए भोलेभाले श्रद्धालु भद्रजनों को (बहकाकर या उलटे-सीधे समझाकर) नरक के गर्त में डाल देते हैं।' यहां उन उपदेशों को लोभ में अंधे क्यों कहा गया? इसके उत्तर में कहते हैं-वे लोग सहज विवेक रूपी पवित्र चक्षु या| विवेकी के संसर्ग रूपी नेत्र से रहित हैं। कहा भी है-'एक तो, पवित्र चक्षु सहज विवेक है, दूसरा चक्षु है-उन | विवेकवान व्यक्तिओं के साथ सहवास (सत्संग) करना। संसार में जिसके पास ये दोनों चक्षु नहीं है, वह आँखें होते हुए | भी वास्तव में अंधा है। अगर ऐसा व्यक्ति विपरीत मार्ग में प्रवृत्त होता है तो इसमें दोष किसका? उसी का ही तो है!' चतुर बुद्धिशाली व्यक्तियों को कार्याकार्य के विवेक करने में ऐसे ठगों की मीठी-मीठी बातों के चक्कर में आकर विश्वास नहीं कर लेना चाहिए ।।३।।
जिसने हिंसापरक शास्त्र रचा हैं, उसका उल्लेख करके आगे उसकी धज्जियाँ उड़ाते हैं।८९। यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः, स्वयमेव स्वयम्भुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य, तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः।।३३।। अर्थ :- ब्रह्माजी ने यज्ञ के लिए स्वयमेव पशुओं को बनाया है; यज्ञ इस सारे चराचर विश्व के कल्याण के लिए
है। इसलिए यज्ञ में होने वाली हिंसा हिंसा नहीं होती। यानी वह हिंसा पाप का कारण नहीं होती।।३३।। ___व्याख्या :- यह पूछे जाने पर कि 'यज्ञ में होने वाली हिंसा में कोई दोष क्यों नहीं है? उनकी ओर से यह उत्तर दिया जाता है-जिस जीव की हिंसा की जाती है, उसके प्राणवियोग से बड़ा उपकार होता है, अथवा पुत्र, स्त्री, धन आदि के वियोग से महान् उपकार होता है, यज्ञीय हिंसा से मरने वालों के लिए वह हिंसा इसलिए महोपकारिणी होती है कि अनर्थ से उत्पन्न हिंसा से, दुष्कृत से होने वाली हिंसा से तथा नराकादि फलविपाक प्राप्त कराने वाली हिंसा से यह हिंसा भिन्न है। इस हिंसा से मरने वाले नरकादि फल नहीं पाते। इसलिए यह हिंसा अपकारक नहीं, उपकारक है।।३३।।
इसी समर्थन में आगे कहते हैं।।९०। औषध्यः पशवो, वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः, प्राप्नुवन्त्युच्छ्रिति पुनः।।३४।। ___ अर्थ :- डाभ आदि औषधियों, बकरा आदि पशु, यूप आदि वृक्ष, बैल, घोड़ा, गाय आदि तिर्यंच, कपिंजल,
चिड़िया आदि पक्षियों का यज्ञ के लिए जब विनाश किया जाता है, तो वे नष्ट हो (मर) कर फिर देव,
गंधर्व आदि उच्च योनियां प्राप्त करते हैं अथवा उत्तरकुरु आदि में दीर्घायुष्य प्रास करते हैं।।३४।। ।९१। मधुपर्के च यज्ञे च, पितृदेवतकर्मणि । अत्रेव पशवो हिंस्या, नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः ॥३५।।
अर्थ :- मधुपर्क एक प्रकार का अनुष्ठान है, जिसमें गो वध का विधान है; ज्योतिष्ठोम यज्ञ, जिसमें पशुवध
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