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यज्ञ में की गयी पशुहिंसा क्रूरपापफलदायिनी है
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ३६ से ३८ करना विहित है; पितृश्राद्धकर्म, जिसमें माता-पिता आदि पितरों के प्रति श्राद्ध किया जाता है; एवं दैवतकर्म, जिसमें देवों के प्रति महायज्ञ आदि अनुष्ठान किया जाता है; इन सब अनुष्ठानों में ही पशुहिंसा करनी चाहिए, इसके अतिरिक्त कामों में नहीं। अर्थात् इन्हीं कार्यों में विहित पशुहिंसा पाप नहीं है; अन्यत्र पशुहिंसा पाप है ।। ३५ ।।
इस प्रकार मनु ने मनुस्मृति के पांचवें अध्याय में कहा है
।९२। एष्वर्थेषु पशून् हिंसन् वेदतत्त्वार्थविद् द्विजः । आत्मानं च पशूंश्चैव गमयत्युत्तमां गतिम् ॥३६॥ अर्थ :- उपर्युक्त कार्यों के लिए पशुहिंसा करने वाला वेद के तात्त्विक अर्थ का ज्ञाता विप्र अपने आपको और पशुओं को उत्तम गति (स्वर्ग, मोक्ष आदि ) में पहुंचाता है ।। ३६ ।।
हिंसा करने की बात को एक ओर रख दें, तो भी दूसरों को हिंसा के उपदेश देने वाले कैसे है? यह बताते हैं| । ९३ । ये चक्रुः क्रूरकर्माणः शास्त्रं हिंसोपदेशकम्। क्व ते यास्यन्ति नरके, नास्तिकेभ्योऽपि नास्तिकाः॥३७॥ स्वयं हिंसा न करके जिन्होंने हिंसा का उपदेश (प्रेरणा) देने वाले शास्त्र (मनुस्मृति आदि) रचे हैं, वे क्रूर कर्म करने वाले निर्दय दिखने में आस्तिक दिखायी देते हैं, लेकिन वे नास्तिकों से भी महानास्तिक है। पता नहीं, वे कौन-से नरक में जायेंगे ? ।। ३७।।
अर्थ
आगे और कहते हैं
:
। ९४ । वरं वराकश्चार्वाको, योऽसौ प्रकटनास्तिकः । वेदोक्तितापसच्छद्मच्छन्नं रक्षो न जैमिनिः ॥ ३८ ॥ अर्थ :- बेचारा चार्वाक, जो बिना किसी दंभ के नास्तिक के नाम से जगत् में प्रसिद्ध है, अच्छा है; मगर तापसवेष में छिपा हुआ जैमिनि राक्षस, जो 'वेद में ऐसा कहा है, ' इस प्रकार वेदों की दुहाई देकर वेद के नाम से लोगों को बहकाता है (हिंसा की ओर प्रेरित करता है), अच्छा नहीं है ||३८||
व्याख्या :
• बेचारा लोकायतिक या चार्वाक दंभरहित होने से जैमिनि की अपेक्षा से तो कुछ अच्छा माना जा सकता है। परंतु वेद - वचनों को प्रस्तुत करके तापसवेष की ओट में जीवों की हिंसा का खुल्लमखुल्ला विधान करके जनता को | ठगने वाला राक्षस- सरीखा जैमिनि अच्छा नहीं । उसका यह कथन कि 'यज्ञ के लिए ब्रह्मा ने पशुओं को पैदा किया है; | केवल वाणीविलास है; सच तो यह है कि सभी जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न शुभाशुभ योनियों में उत्पन्न होते हैं। इसलिए दूसरे को उत्पन्न करने वाला बताकर सृष्टिवाद का प्ररूपण करना गलत है। 'विश्व के सभी प्राणियों की सुखशांति के लिए (पशुवधमूलक) यज्ञ करें; यह कथन भी अर्थवाद है या पक्षपातयुक्त है। 'वैदिकी या याज्ञिकी हिंसा हिंसा नहीं होती', यह कथन भी हास्यास्पद है। यज्ञ के लिए मारे गये या नष्ट किये गये औषधि आदि के जीवों को उत्तमगति मिलती है, यह वचन तो उस पर अंधश्रद्धा रखने वालों का समझना चाहिए। सुकृत किये बिना यज्ञ के | निमित्त वध किये जाने मात्र से उच्चगति नहीं हो सकती और मान लो, यज्ञ 'मारे जाने मात्र से ही किसी को उच्चगति मिल जाती हो तो अपने माता-पिता को यज्ञ में मारकर उच्च गति में क्यों नहीं भेज देते या स्वयं यज्ञ में मरकर झटपट | स्वर्ग में क्यों नहीं चले जाते ? इसीलिए बेचारा निर्दोष पशु मानो याज्ञिक से निवेदन करता है - 'महाशय ! मुझे स्वर्ग में | जाने की कोई ख्वाहिश नहीं है। मैं आपसे स्वर्ग या और कुछ मांग भी नहीं रहा हूं। मैं तो हमेशा घास - तिनका खाकर ही संतुष्ट रहता हूं। इसलिए मुझे स्वर्ग का लालच दिखाकर इस प्रकार मारना उचित नहीं है। अगर यज्ञ में मारे हुए सचमुच स्वर्ग में जाते हों तो आप अपने माता, पिता या अन्य बंधुओं को यज्ञ में होम करके स्वर्ग में क्यों नहीं भेज | देते?' मधुपर्क आदि हिंसा कल्याणकारिणी होती है, अन्य नहीं होती; यह किसी स्वच्छंदाचारी के वचन है। हिंसा हिंसा में कोई अंतर कैसे हो सकता है कि एक हिंसा तो कल्याणकारिणी हो और दूसरी हिंसा अकल्याणकारिणी हो । विष विष में क्या कोई अंतर होता है? इसलिए पुण्यात्माओं को सब प्रकार की हिंसाओं का त्याग करना चाहिए। जैसा कि दशवैकालिकसूत्र (जैनागम) में कहा है- सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए निग्रंथमु | प्राणिवध- जैसे घोर कर्म का त्याग करते हैं।' पहले जो कहा गया था कि 'पशुवधपूर्वक किया गया यज्ञ खुद को तथा | उस पशु को उत्तम गति प्रदान करता है।' यह कथन भी अतिसाहसिक के सिवाय कौन करेगा? हो सकता है, मरने वाले
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