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हिंसापरक शास्त्रवचनों के नमूने, अहिंसा का फल
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ५० से ५३ | पुष्प, फल आदि ( एवं मद्य-मांस आदि) से पूजे जाते हैं और वह भी देवत्वबुद्धि से । उक्त देवों की हिंसकता का कारण | उनके साथ रहने वाले शस्त्र-अस्त्र आदि चिह्न है - यानी धनुष्य, दंड, चक्र, खड्ग, त्रिशूल एवं भाला आदि हथियार | | उनकी हिंसाकारकता प्रकट करते हैं। वे हिंसा करने वाले न भी हों, लेकिन धनुष आदि प्रतीक हिंसा के बोलते चिह्न है। अगर वे हिंसा नहीं करते हैं तो हथियार रखने की क्या जरूरत है? उनका शस्त्रधारण करना अनुचित है। परंतु लोक में प्रसिद्ध है कि रुद्र धनुषधारी है, यमराजा दंडधारी है, चक्र और खड्ग के धारक विष्णु है, त्रिशूलधारी शिव हैं और शक्तिधारी कार्तिकेय हैं। उपलक्षण से अन्य शस्त्रास्त्रधारी अन्यान्य देवों के विषय में भी समझ लेना चाहिए । । ४९ ।।
इस प्रकार हिंसा का विस्तृत रूप से निषेध करके अब दो श्लोकों में अहिंसा की महिमा बताते हैं। १०६। मातेव सर्वभूतानामहिंसा हितकारिणी । अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारणिः ॥५०॥ ।१०७। अहिंसा दुःखदावाग्निप्रावृषेण्यघनावली । भवभ्रमिरुगार्त्तानामहिंसा परमौषधिः ॥ ५१ ॥ अर्थ :- अहिंसा माता की तरह समस्त प्राणियों का हित करने वाली है। अहिंसा ही इस संसार रूपी मरुभूमि ( रेगिस्तान) में अमृत बहाने वाली सरिता है। अहिंसा दुःख रूपी दावाग्नि को शांत करने के लिए वर्षाऋतु की मेघघटा है तथा भवभ्रमण रूपी रोग से पीड़ित जीवों के लिए अहिंसा परम औषधि है ।।५०-५१ ।।
अब अहिंसापालन करने का फल बताते हैं
। १०८ । दीर्घमायुः परं रूपमारोग्यं श्लाघनीयता । अहिंसायाः फलं सर्वं किमन्यत् कामदैव सा ॥ ५२ ॥ दीर्घ आयुष्य, उत्तम रूप, आरोग्य, प्रशंसनीयता; आदि सब अहिंसा के ही सुफल है। अधिक क्या कहें? अहिंसा कामधेनु की तरह समस्त मनोवांछित फल देती है ।। ५२॥
अर्थ :
व्याख्या : - अहिंसाव्रत के पालन में तत्पर व्यक्ति जब दूसरे के आयुष्य को बढ़ाता है तो यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि उसे भी जन्म-जन्मांतर में लंबा आयुष्य मिलता है। दूसरे के रूप का नाश न करने से वह स्वतः ही उत्तम रूप पाता है। दूसरों को अस्वस्थ बना देने वाली हिंसा का त्याग करके जब अहिंसक दूसरों को स्वस्थता प्राप्ति कराता है तो वह स्वतः परम स्वास्थ्य रूप निरोगता प्राप्त करता है और समस्त जीवों को अभयदान देने से वे प्रसन्न होते हैं। और उनके द्वारा प्रशंसा प्राप्त करता है ये सारे अहिंसा के फल है । इस अहिंसा का साधक जिस-जिस प्रकार की मनोवांछा करता है, उसे भी अहिंसा से प्राप्त कर लेता है । उपलक्षण से अहिंसा स्वर्ग और मोक्ष के सुख देने वाली है ।। ५२ ।। अहिंसा के संबंध में और भी कहते हैं
हेमाद्रिः पर्वतानां हरिरमृतभुजां चक्रवर्ती नराणाम् । शीतांशुर्ज्योतिषां स्वस्तरुखनिरुहां चंडरोचिग्रहाणाम् ॥ सिन्धुस्तोयाशयानां, जिनपतिरसुरामर्त्यमर्त्याधिपानां यद्वत् तद्वत् व्रतानामधिपतिपदवीं यात्यहिंसा किमन्यत् ॥१॥
जैसे पर्वतों में सुमेरु पर्वत, देवों में इंद्र, मनुष्यों में चक्रवर्ती, ज्योतिषियों में चंद्र, वृक्षों में कल्पतरु, ग्रहों में सूर्य, जलाशयों में समुद्र, असुरों, सुरों और मनुष्यों के अधिपति जिनपति है, वैसे ही सर्वव्रतों में अहिंसा अधिपति का पद प्राप्त करती है। अधिक क्या कहें?
इस प्रकार विस्तार से अहिंसाव्रत के संबंध में कह चुके । अब उसके आगे प्रसंगवश सत्यव्रत (सत्याणुव्रत ) का | वर्णन करते हैं। सत्यव्रत की उपलब्धि झूठ (असत्य) के त्याग के बिना नहीं हो सकती। इसलिए असत्यवचन का दुष्परिणाम (कुफल) बताकर उसके त्याग के लिए प्रेरित करते हैं
अर्थ :
।१०९। मन्मनत्वं काहलत्वं, मूकत्वं मुखरोगिताम् । वीक्ष्यासत्यफलं कन्यालीकाद्यसत्यमुत्सृजेत् ॥५३॥ समझ में न आये, इस प्रकार के उच्चारण के कारण स्पष्ट बोलने की अक्षमता, तोतलापन, मूकता ( गूंगापन), मुंह में रोग पैदा हो जाना आदि सब असत्य के फल हैं, यह जानकर कन्या आदि के संबंध में असत्य का त्याग करना चाहिए //५३//
व्याख्या :- दूसरे को अपनी बात समझ में न आये, इस प्रकार हकलाते हुए अस्पष्ट उच्चारण करना, तुतलाते
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