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अहिंसा की महिमा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ४७ से ४९ मांस की बलि देने से दो मास तक, हिरण के मांस से तीन महीने तक, भेड़ के मांस से चार महीने तक, पक्षियों के मांस से ५ महीने तक, पार्षत नामक हिरण के मांस से सात महीने तक, रौरवजाति के मृग के मांस से नौ महीने तक, सूअर और भैंसे के मांस से १० महीने तक तथा खरगोश और कछुए के मांस से ग्यारह महीने तक पितर तृप्त होते हैं। गाय के दूध और दूध की बनी हुई खीर की हवि से बारह महीने (एक वर्ष) तक पितर तृप्त हो जाते हैं। इंद्रियबल से क्षीण बूढ़े सफेद बकरे की बलि दी जाय तो उसके मांस से पितर आदि पूर्वजों को बारह वर्ष तक तृप्ति हो जाती है। पूर्वोक्त ४६वें श्लोक में श्रुति और अनुमति इन दोनों में से श्रुति बलवती होने से 'गव्येन पयसा' एवं 'पायसेन' शब्द से क्रमशः गाय का मांस या गाय के मांस की खीर अर्थ न लगाकर, गाय का दूध और दूध की खीर अर्थ ग्रहण करना चाहिए। कई व्याख्याकार पायस शब्द की व्याख्या यों करते हैं कि मांस के साथ पका हुआ दूध और दूध से बना हुआ दही आदि पायस कहलाता है। अथवा दूध में पके हुए चावल, जिसे दूधपाक या खीर
कहते हैं; वह भी पायस कहलाता है ॥४१-४६।। व्याख्या :- पितृतर्पण के निमित्त से हिंसा का उपदेश देने वाले पूर्वोक्त शास्त्रवचन उद्धृत करके अब उस हिंसा | से होने वाले दोष बताते हैं. १०३। इति स्मृत्यनुसारेण, पितृणां तर्पणाय या । मूढैविधीयते हिंसा, साऽपि दुर्गति हेतवे ॥४७।। . अर्थ :- इस प्रकार स्मृतिवाक्यानुसार पितरों के तर्पण के लिए मूढ़ जो हिंसा करते हैं, वह भी उनके लिए दुर्गति
का कारण बनती है ।।४७।। व्याख्या :- पूर्वोक्त स्मृति (धर्मसंहिता) आदि में उक्त-पिता दादा और परदादा को पिंड अर्पण करे, इत्यादि वचनों | के अनुसार पितृवंशजों के तर्पण करने हेतु मूढ़ (विवेक विकल) जो हिंसा करते हैं, उसके पीछे मांस लोलुपता आदि ही कारण नहीं है, वरन् नरक आदि दुर्गति की प्राप्ति भी कारण रूप है। 'जरा-सी हिंसा नरक-जनक नहीं बनेगी, ऐसा मत समझना। मतलब यह है कि एक तो किसी को उपदेश न देकर स्वयं उक्त निमित्त से हिंसा करता है, वह तो थोड़ीसी हिंसा से स्वयं नरकादि दुर्गति में जाकर उसका फल भोग लेता है, लेकिन जो पिता आदि पूर्वजों की तृप्ति के लिए विस्तृत रूप से दूसरों को उक्त हिंसा के लिए प्रेरित करता है, उपदेश देता है और अनेक भोले जीवों की बुद्धि भ्रांत कर देता है, वह अनेक लोगों द्वारा हिंसा करवाकर भयंकर नरक में उन्हें पहुंचाता है, खुद भी घोर नरक के गड्ढे में गिरता है। तिल, चावल या मछली के मांस से जो पितरों की तृप्ति होने का विधान किया गया है, वह भी भ्रांति है। यदि मरे हुए जीवों की इन चीजों से तृप्ति हो जाती हो तो बुझे हुए दीपक में सिर्फ तेल डालने से उस दीपक की लौ बढ़ जानी | चाहिए। हिंसा केवल दुर्गति का कारण है, इतना ही नहीं, जिन जीवों की हिंसा की जाती है, उनके साथ वैर-विरोध बंधने का भी कारण है। इसीलिए हिंसक को इस लोक और परलोक में सर्वत्र हिंसा के कारण सबसे भय लगता रहता है। मगर अहिंसक तो समस्त जीवों को अभयदान देने में शूरवीर होता है, इस कारण उसे किसी भी तरफ से किसी से भय नहीं होता ।।४७।। इसी बात की पुष्टि करते हैं||१०४। यो भूतेष्वभयं दद्यात्, भूतेभ्यस्तस्य नो भयम् । यादृग् वितीर्यते दानं, तादृगासाद्यते फलम्।।४८।। अर्थ :- जो जीवों को अभयदान देता है, उसे उन प्राणियों की ओर से कोई भय नहीं होता, क्योंकि जो जिस प्रकार
का दान देता है, वह उसी प्रकार का फल प्राप्त करता है ।।४८।। व्याख्या :- इस तरह यहां तक हिंसा में तत्पर मनुष्यों को उनकी हिंसा का नरकादि दुर्गति रूप फल बताया।।८।। अब निन्द्यचरित्र हिंसक देवों की मूढजनों द्वारा की जाने वाली लोक प्रसिद्ध पूजा का खंडन करते हैं।१०५। कोदण्ड-दण्ड-चक्रासि-शूल-शक्तिधरा सुराः । हिंसका अपि हा! कष्टं, पूज्यन्ते देवताधिया।।४९।।
:- अहा! बड़ा अफसोस है कि धनुष्य, दंड, चक्र, तलवार, शूल और भाला (शक्ति) रखने (धारण करने
वाले हिंसक देव देवत्व-बुद्धि (दृष्टि) से पूजे जाते हैं ।।४९।। व्याख्या :- अत्यंत खेद की बात है कि रुद्र आदि हिंसापरायण देव आज अपढ़ और सामान्य लोगों द्वारा विविध
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