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हिंसापरक शास्त्रवचनों के नमूने
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ३९ से ४६ अहिंसक पशु को (उसकी शुभभावना हो तो) अकाम-निर्जरा से उत्तमगति प्राप्त हो जाय, मगर यज्ञ में पशुवधकर्ता या पशुवधप्रेरक याज्ञिक ब्राह्मण को उत्तमगति कैसे संभव हो सकती है? ।।३८।।
इस विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं।९५। देवोपहारव्याजेन, यज्ञव्याजेन येऽथवा । नन्ति जन्तून् गतघृणा, घोरां ते यान्ति दुर्गतिम् ॥३९॥ अर्थ :- देवों को बलिदान देने (भेंट चढ़ाने) के बहाने अथवा यज्ञ के बहाने जो निर्दय होकर जीवों को मारते हैं,
वे घोर दुर्गति में जाते है।।३९।। व्याख्या :- भैरव, चंडी आदि देव-देवियों को बलिदान देने के लिए अथवा महानवमी. माघ-अष्टमी. चैत्र| अष्टमी, श्रावण शुक्ला एकादशी आदि पर्वदिनों में देवपूजा के निमित्त से भेंट चढ़ाने के लिए जीवों का वध करते हैं,
वे नरक आदि भयंकर गतियों में जाते हैं। यहां देवता को भेंट चढ़ाने आदि निमित्त का विशेष रूप से कथन किया गया है। और उपसंहार में कहा गया है- 'यज्ञ के बहाने से।' जब निर्दोष और स्वाधीन धर्मसाधन मौजूद है तो फिर सदोष
और पराधीन धर्मसाधनों को पकड़े रखना कथमपि हितावह नहीं माना जा सकता। घर के आंगन में उगे हुए आक में ही साधु मिल जाय तो पहाड़ पर जाने की फिजूल मेहनत क्यों की जाय? ।।३९।।
हिंसाधर्मियों का और भी बौद्धिक दिवालियापन सूचित करते हैं।९६। शमशीलदयामूलं, हित्वा धर्मं जगद्धितम् । अहो हिंसाऽपि धाय, जगदे मन्दबुद्धिभिः ।।४०।। अर्थ :- जिसकी जड़ में शम, शील और दया है, ऐसे जगत्कल्याणकारी धर्म को छोड़कर मंदबुद्धि लोगों ने हिंसा
को धर्म की कारणभूत बता दी है, यह बड़े खेद की बात है ।।४०।। व्याख्या :- कषायों और इंद्रियों पर विजय रूप शम, सुंदर स्वभाव रूप शील और जीवों पर अनुकंपा रूप दया; ये तीनों जिस धर्म के मूल में हैं, वह धर्म अभ्युदय (इहलौकिक उन्नति) और निःश्रेयस (पारलौकिक कल्याण या मोक्ष) का कारण है। इस प्रकार का धर्म जगत् के लिए हितकर होता है। परंतु खेद है कि ऐसे शमशीलादिमय धर्म के साधनों को छोड़कर हिंसादि को धर्मसाधन बताते हैं और वास्तविक धर्मसाधनों की उपेक्षा करते हैं। इस प्रकार उलटा प्रतिपादन करने वालों की बुद्धिमंदता स्पष्ट प्रतीत होती है ।।४।।
यहां तक लोभमूलक शांति के निमित्त से की जाने वाली लोभमूलक हिंसा, कुलपरंपरागत हिंसा, यज्ञीय हिंसा या देवबलि के निमित्त से की जाने वाली हिंसा का निषेध किया; अब पितृपूजाविषयक हिंसा के संबंध में विवेचन बाकी है, वह दूसरे शास्त्र (मनुस्मृति के तीसरे अध्याय) से ज्यों का त्यों लेकर निम्नोक्त ६ श्लोकों में प्रस्तुत करते हैं।९७। हविर्यच्चिररात्राय, यच्चानन्त्याय कल्पते । पितृभ्यो विधिवद्दत्तं, तत्प्रवक्ष्याम्यशेषतः ॥४१॥ .
।९८। तिलव्रीहियवैङ्किरद्भिर्मूलफलेन वा । दत्तेन मासं प्रीयन्ते विधिवत् पितरो नृणाम् ॥४२॥ ।९९। द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन, त्रीन् मासान् हारिणेन तु । औरभ्रेणाऽथ चतुरः शाकुनेनेह पञ्च तु ।।४३।। ।१००। षण्मासांश्छागमांसेन, पार्षतेनेह सप्त वै । अष्टावेणस्य मांसेन, रौरवेण नवैव तु ॥४४।। ।१०१। दशमासांस्तु तृप्यन्ति, वराहमहिषामिषैः । शशकुर्मयोमा॑सेन, मासानेकादशैव तु ॥४५॥ ।१०२। संवत्सरं तु गव्येन, पयसा पायसेन तु । वार्धाणसस्य मांसेन, तृप्तर्वादशवार्षिकी ॥४६।।
(मनु. ३ / २६६-२७१) अर्थ :- जो हवि (बलि) चिरकाल तक और किसी समय अनंतकाल दी जाने का विधान है, इन दोनों प्रकार की
बलि विधि पूर्वक पितरों को दी जाय तो उन्हें (पिता आदि पूर्वजों को) तृति होती है। पितृतर्पण की विधि क्या है? यह सब मैं पूर्ण रूप से कहूंगा। तिल, चावल, जौ, उड़द, जल, कंदमूल और फल की हवि (बलि) विधिपूर्वक देने से मनुष्यों के पितर (पिता आदि पूर्वज) एक मास तक तृस होते हैं; मछली के
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