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सुलस की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ३० साधु का स्वांग रचा और खुद को ऐसा अकार्य करने वाला साधु बताया। उसे देखकर श्रेणिक ने शासन (धर्म) की बदनामी न हो इस दृष्टि से उसे समझाकर अकार्य से रोका और आगे बढ़ा। उस देव ने फिर गर्भिणी साध्वी का रूप बनाकर अपने को साध्वी बतायी, तब श्रेणिक राजा शासनभक्ति से उसे घर ले आया और उसकी रक्षा की। देव ने, श्रेणिक राजा का यह रवैया देखकर सोचा-इंद्र महाराज ने सभा में इसकी जैसी प्रशंसा की थी, वैसा ही मैंने पाया है। वास्तव में ऐसे परुषों के वचन मिथ्या नहीं होते। फिर इस देव ने दिन में भी प्रकाशमान नक्षत्रश्रेणि के समान एक हार
और दो गोले श्रेणिक राजा को भेंट किये। वह देव देखते-देखते यह कहकर स्वप्नवत् अदृश्य हो गया कि इस हार को टूटने पर जो जोड़ देगा, वह शीघ्र मर जायेगा। राजा ने चेलणा रानी को वह दिव्य मनोहर हार दिया और दो गोले दिये। नंदरानी ने ईर्षालु दृष्टि से मन ही मन विचारा कि 'क्या मैं ऐसे तुच्छ उपहार के योग्य हं। अतः रोषवश उसने दोनों गोले खंभे के साथ टकराये। जिससे गोले टूट गये। एक गोले में से चंद्रयुगल के समान निर्मल कुंडलों का जोड़ा निकला
और दूसरे में से देदीप्यमान दिव्यवस्त्रयुगल निकला। उस दिव्य पदार्थों को देखकर नंदारानी ने हर्षित होकर उन उपहारों को स्वीकार किया। महान आत्माओं को अचिन्त्य लाभ हो जाता है। । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा अपने राजमहल में पहुंचा और प्रलोभन देते हुए कपिला से कहा-'भद्रे! यदि तूं एक बार | भी श्रद्धापूर्वक साधुओं को आहार देगी तो तुझे मालामाल कर दूंगा और दासता से भी मुक्त कर दूंगा। तब कपिला ने
उत्तर दिया- 'देव! यदि आप मुझे सारी की सारी सोने की बना दें अथवा नाराज होकर मुझे जान से भी मार डाले तो | भी मैं यह अकार्य नहीं करूंगी।' निराश राजा ने कालसौकरिक को बुलाकर उससे कहा- 'तूं जीवों को मारने का यह | धंधा छोड़ दे; अगर तूं धन के लोभ से यह कार्य करता है तो मैं तुझे पर्याप्त धन दूंगा।' उसने कहा- 'मेरे बाप-दादा से चले आये इन जीवों को मारने का धंधा मैं नहीं छोड़ सकता। इस पर मेरे परिवार के अनेक आदमी पलते हैं, जिससे मानव जिंदा रहे, उस हिंसा के करने में कौन-सा दोष है?' राजा ने उसे अंधे कुएँ में डलवा दिया। यहां इस अंधे कुएँ | में डालने पर हथियार न होने पर तब यह कैसे हिंसा करेगा? अतः पूरे एक दिन और रात बंद रहेगा। यह सोचकर श्रेणिक ने भगवान से जाकर विनति की, 'भगवन्! मैंने कालसौकरिक से एक दिन एक रात की हिंसा का काम तो बंद करवा दिया है।' सर्वज्ञ प्रभु ने कहा-'राजन्! उसने अंधे कुंएँ में भी अपने शरीर के मैल के पांच सौ भैंसे बनाकर मारे हैं। वहां जाकर देखो तो सही।' राजा ने देखा तो वैसा ही पाया। अतः श्रेणिक मन ही मन खेद करने लगा। 'मेरे पूर्व कर्मों को धिक्कार है; भगवान की वाणी मिथ्या नहीं होती।'
हमेशा पांच सौ भैंसों को मारता हुआ कसाई महापापपुंज में वृद्धि करने लगा। नरक की प्राप्ति होने से पहले तक उसके शरीर में भयंकर से भयंकर महारोग पैदा हुए। आखिर में नरकगति प्राप्ति के समय महादारुण-पापवश वध करते हुए सूअर के समान व्याधि की पीड़ा से यातना पाते हुए इस लोक से विदा हुआ। उस समय वह हाय मा! अरे बाप रे! इस तरह जोर-जोर से चिल्लाता था। उसे स्त्री, शय्या, पुष्प, वीणा के शब्द या चंदन आदि अनुकूल सुख-सामग्री, आंख, चमड़ी, नाक, कान तथा जीभ में शूल भौंकने के समान अत्यंत कष्टकर लगती थी। पिता की यह दशा देखकर कालसौकरिक-पत्र सलस ने जगत में आप्त और अभयदानपरायण श्री अभयकमार से पिता की सारी कहा-'तुम्हारे पिताजी ने जो हिंसा आदि भयंकर कर पापकार्य किये हैं, उनका फल ऐसा ही होता है। यह सच है, तीव्र पापकर्मों का फल भी तीव्र होता है। दूसरा कोई भी व्यक्ति इस पापकर्मविपाक से बचा नहीं सकता। फिर भी उसकी प्रीति के लिए ऐसा करो जिससे उसे शांति मिले। इसका तरीका यह है कि इंद्रियों के विपरीत पदार्थों का सेवन कराओ। विष्टा की दुर्गंध मिटाने के लिए जल उसका सही उपाय नहीं है।' इस पर सुलस ने घर आकर अपने पिता को कड़वे
और तीखे पदार्थ खिलाये, तपे हुए तांबे के रस के समान गर्मागर्म पानी पिलाया, विष्ठा लाकर उसके शरीर पर लेप किया, कांटों की शय्या पर उसे सुलाया, गधों और ऊँटों के कर्णकटु शब्द उसे सुनाये; राक्षस, भूत वैताल और अस्थिपंजर मनुष्य सरीखे भयंकर रूप बताएँ। इन और ऐसे ही अनेक प्रतिकूल विषयों के सेवन करने से कालसौकरिक को राहत मिली। उसने सुलस से कहा-'बेटा! बहुत अर्से के बाद आज स्वादिष्ट भोजन मिला है, ठंडा पानी पीया है, कोमल गुदगुदी शय्या पर लेटा हूं, सुगंधित पदार्थ का लेप किया है, मधुर-मधुर शब्द सुने है और सुंदर सुंदर रूप देखे
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