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सुलस की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ३० से मुक्त होने पर भूख अत्यंत बढ़ गयी थी। इस कारण से उसने डटकर गले तक ढूंस-ठूसकर खाया। मरुभूमि के यात्री को जैसे गर्मी की मौसम में अत्यंत प्यास लगती हैं. वैसे ही अतिभोजन करने से सेडक को बहत प्यास लगी। प्यास से वह बहुत छटपटा रहा था। फिर भी द्वारपाल के भय से उस स्थान को छोड़कर किसी पानी के स्रोत या जलाशय की ओर नहीं गया। प्रत्युत वहां बैठा रहा और अत्यंत तृषापीड़ित होकर मन ही मन जलचर जीवों को धन्य मानने लगा। असह्य प्यास के कारण हाय पानी, हाय पानी चिल्लाते हुए उसने वहीं पर दम तोड़ दिया। मरकर वह इसी नगरी के दरवाजे के पास वाली बावड़ी में मैंढक के रूप में पैदा हुआ। हम विहार करते हुए फिर इस नगर में आये। अतः वंदन करने के लिए लोग अति शीघ्रता से आने लगे। मेरे आगमन के समाचार पनिहारियों के मुंह से सुनकर वह मेंढक विचार करने लगा-'यह बात तो मैंने पहले भी कभी सुनी है।' उसी बात पर बार-बार उहापोह करते हुए उसे स्वप्नों के स्मरण करने की तरह उसी क्षण जातिस्मरण-ज्ञान हो गया; जिसके प्रकाश में मेंढक ने जाना कि पूर्वजन्म में मुझे इसी दरवाजे
पाल के तौर पर नियुक्त करके द्वारपाल जिन प्रभवर को वंदन करने गये थे, वे ही यहां पधारें हैं। अतः जैसे मनुष्य उन्हें वंदन करने जाते हैं, वैसे मैं भी जाऊँ, गंगानदी का पानी तो सार्वजनिक है। इसका कोई एक मालिक नहीं होता।' यों सोचकर वह वहां से फुदकता हुआ मुझे वंदन करने के लिए आ रहा था कि मार्ग में ही तुम्हारे घोड़े के पैर के खुर से कुचलकर वह मेंढक वही मर गया। पर मरते समय उसके मन में मेरे प्रति भक्ति और प्रीति थी, इस कारण दर्दुरांक देव के रूप में पैदा हुआ।
'भावना क्रियारहित हो तो भी फलदायिनी होती है।' देवेन्द्र ने एक दिन देवसभा में कहा था कि-भारतवर्ष में श्रेणिकनृप श्रावकों में श्रेष्ठ है और दृढ़ श्रद्धावान है; इस कारण राजन्! यह दर्दुरांक देव तुम्हारी परीक्षा लेने आया था। उसने गोशीर्षचंदन से मेरे चरणों की पूजा की। तुम में दृष्टिभ्रम पैदा करने के लिए इसने वैक्रियशक्ति से कोढ़िये आदि का रूप बनाकर मवाद लेपन मेरे चरणों पर करने का स्वांग दिखाया और चारों के लिए चार प्रकार की विभिन्न बातें कहीं।
इस पर श्रेणिक राजा ने भगवान्! से पुनः प्रश्न किया-'भगवन्! जब आपश्री को छींक आयी तो यह सर्वथा अमांगलिक शब्द और दूसरों को छींक आयी तो तो मांगलिक और अमांगलिक शब्द क्यों बोला?' उत्तर में भगवान् ने कहा-'मेरे लिये उसका संकेत यह था कि आप अभी तक संसार में क्यों बैठे है? शीघ्र ही मोक्ष में प्रयाण करें। इसलिए उसने मेरे लिये कहा था-'मर जाओ।' और हे नरसिंह! तुम्हें यहां पर सुख है, मरने के बाद तो तुम्हारी गति नरक है, जहां अपार दुःख है। इसी के संकेत स्वरूप कहा था- 'जीते रहो।' इसके अंतर अभयकुमार के लिए कहा था, जीते रहो या मर जाओ। वह इस दृष्टि से कहा था कि जीयेगा तो धर्माचरण करेगा और मरेगा तो अनुत्तरविमान देवलोक में जायेगा।' और सबसे अंत में कालसौकरिक के लिए कहा था कि 'न जीओ ओर न मरो,' वह इस अभिप्राय से था कि अगर वह जीवित रहेगा तो अनेक जीवों की हत्या करता रहेगा और मरेगा तो सातवीं नरक में जायेगा।' भगवान् के श्रीमुख से यह स्पष्टीकरण सुनकर सम्राट् श्रेणिक ने नमस्कार करके प्रार्थना की-'प्रभो! आप सरीखे 'कृपानाथ के होते हुए भी मुझे नरक में जाना पड़ेगा।' भगवान् ने कहा-'तुमने पहले से ही नरक का आयुष्य बांध रखा है। इस कारण वहां तो अवश्य जाना पड़ेगा।' 'पहले के बंधे हुए शुभ या अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है, इसमें कुछ भी रद्दोबदल करने में हम सब असमर्थ हैं। लेकिन प्रसन्नता की बात यह है कि तुम आगामी चौबीसी में पद्मनाभ नाम के प्रथम तीर्थकर बनोगे। अतः खेद मत करो।' श्रेणिक ने फिर पूछा-'नाथ! अंधे कुंए में अंधे के समान घोर अंधतम नरक से बचने का मेरे लिये क्या कोई उपाय भी है?' भगवान् ने उत्तर दिया- 'हाँ! दो उपाय है।' एक तो यह कि अगर तुम्हारी दासी कपिला (ब्राह्मणी) के हाथ से सहर्ष साधु को दान दिला दो, दूसरा तुम कालसौकरिक (कसाई) से जीवों की हत्या करना छुड़वा दो तो नरक से तुम्हारा छुटकारा हो सकता है। अन्यथा अत्यंत मुश्किल है। इस तरह का सम्यग् उपदेश हृदय में हार के समान धारण करके श्रेणिक राजा श्री महावीर प्रभु को वंदना करके अपने महलं की
ओर चला। रास्ते में राजा के सम्यक्त्व की परीक्षा के लिए दर्दुरांक देव ने एक मछुए की तरह जाल कंधे पर डालते हुए 1. अन्य कथाओं में पुणिया श्रावक की सामायिक के साथ तीन उपाय की बात है।
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