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सुलस की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ३० होने वाला है, अतः आप मेरे लिये घी ले आओ। नहीं तो, उस समय मुझ से यह प्रसव पीड़ा सहन नहीं होगी।' इस पर ब्राह्मण ने कहा-'प्रिये! मेरे पास विद्या या कला तो है नहीं; जिससे मैं कहीं भी जाकर घी प्राप्त कर सकूँ। श्रीमान् लोग तो कला से सब चीज प्राप्त कर लेते हैं।' तब ब्राह्मणी ने कहा-'स्वामिन्! आप राजा की सेवा करिए। इस धरती पर राजा दूसरा कल्पवृक्ष होता है।' रत्न प्राप्ति के लिए जैसे लोग सागर की सेवा करते हैं, वैसे ही वह ब्राह्मण उसकी बात मानकर फल-फूल आदि से राजा की सेवा करने लगा। वर्षाऋतु के बादल जैसे आकाश को घेर लेते हैं, एक दिन वैसे ही चंपापुरी के राजा ने महान सैन्य के साथ कौशांबी को घेर लिया। बांबी में बैठा हुआ सर्प जैसे समय की प्रतिक्षा करता रहता है, वैसे ही सैन्य सहित शतानीक कौशांबी में बैठा-बैठा समय की प्रतिक्षा कर रहा था। जब बहुत समय हो चुका तो शतानीक के सैनिक राजहंस की तरह ऊबकर वहां से जाने लगे। एक दिन सेडुक सुबह-सुबह फूल लेने के लिए उद्यान में पहुंचा। तब उसने सैनिकों एवं राजा के निस्तेजग्रहों के समान फीके चेहरे देखे। उसी समय उसने शतानीक राजा से आकर निवेदन किया-'राजन्! टूटे हुए दांत वाले सर्प के समान आपका शत्रु निर्वीर्य हो गया है, अतः अगर आज ही उसके साथ युद्ध करेंगे तो अनायास ही उसे पकड़ सकेंगे। कोई व्यक्ति कितना ही बलवान हो मगर खिन्न होने के बाद शत्रु से लोहा नहीं ले सकता। उसके वचन को मानकर राजा अपनी विशाल सेना और सामग्री लेकर बाणवृष्टि करता हुआ अपने शिविर से बाहर निकला। अचानक चंपानरेश पर हमला देखकर चंपा की राजसेना पीछे देखे बिना ही बेहताशा भागने लगी। सच है, अचानक बिजली गिरने पर उसकी ओर कौन देख सकता है?' किस दिशा में जाऊँ? इस विचार से हक्काबक्का होकर चंपानरेश अकेला ही जान बचाकर भाग निकला। चंपानरेश के भागने से पहले ही उसकी सेना में भगदड़ मच गयी थी। अतः मौका देखकर कौशांबी नरेश ने चंपानरेश के हाथी, घोड़े, रथ एवं खजाना आदि बहुत-सा माल लूटकर अपने कब्जे में कर लिया। बाद में हर्षयुक्त विजयी शतानीक राजा ने वहां से ससैन्य सहर्ष कौशांबी में प्रवेश किया।
विजयोन्मत्त राजा ने प्रसन्न होकर सेडुक ब्राह्मण से कहा-'विप्र! बोलो तुम्हें क्या दे दूं? उसने कहा-मैं अपने कुटुंबियों से पूछकर यथेष्ट वस्तु आप से मांगूगा!' गृहस्थों को गृहिणी के बिना स्वयं कोई विचार नहीं सूझता। भट्ट हर्षित होता हुआ भट्टिनी के पास पहुंचा और उससे सारी बात कही। इस पर उस बुद्धिमती ब्राह्मणी ने आगे पीछे का विचार किया- अगर इसे राजा से गांव आदि मांगने का कहंगी तो गांव आदि मिलने पर यह शायद दसरी शादी कर ले। क्योंकि वैभव अहंकार का जनक होता है। अतः यही ठीक रहेगा कि चक्रवर्ती के राज्य में हमें प्रतिदिन बारी-बारी से प्रत्येक घर से भोजन कराया जाय और दक्षिणा में एक स्वर्णमदा दी जाय।' यों सोचकर उसने अपने दी। ब्राह्मण ने भी राजा से उसी तरह की मांग की। राजा ने ब्राह्मण की मांग स्वीकार की। समद्र के मिल जाने पर भी
योग्यतानसार ही जल लेता है। इसी तरह ब्राह्मण करता था। अब ब्राह्मण को प्रतिदिन भोजन, दक्षिणा और साथ-साथ आदर भी मिलता था। राज-प्रसाद मनुष्य के गौरव को बढ़ा देता है। उस ब्राह्मण को भी राजमान्य समझकर लोग आमंत्रण देने लगे। जिस पर राजा प्रसन्न हो. उसकी सेवा कौन नहीं करता? अब ब्राह्मण को अनेक घरों से न्यौता मिलता था, इसलिए वह पेटू बनकर पहले खाया हुआ वमनकर देता और फिर पुनः आमंत्रण प्राप्त घरों में भोजन करने जाता। क्योंकि जितने घरों में वह भोजन करता उतने ही घरों से उसे दक्षिणा प्राप्त होती। धिक्कार है, ब्राह्मण के ऐसे लोभ को। बार-बार दक्षिणा मिलने के कारण ब्राह्मण प्रचूर धनवान बन गया। जिस प्रकार वटवृक्ष मूलशाखाओं एवं प्रशाखाओं से अधिकाधिक विस्तृत होता जाता है, वैसे ही सेडुक भी पुत्रों और पौत्रों से विस्तृत परिवार वाला हो गया। साथ ही प्रतिदिन अजीर्ण, वमन और खाये हुए का शरीर में रस न बनने के कारण ब्राह्मण को चर्मरोग हो गया। जिससे वह ऐसा लगता था मानो पीतल के पेड़ पर लाख लगी हो। फिर भी अग्नि के समान अतृप्त सेडुक राजा के आदेशानुसार जाकर उसी तरह भोजन करता और दक्षिणा लेता था। इस तरह धीरे-धीरे सेडुक को कोढ़ हो गया, उसके हाथ, पैर, नाक इत्यादि सड़ गये। ___एक दिन मंत्री ने राजा से निवेदन किया- 'देव! इस ब्राह्मण को कोढ़ हो गया है और यह चेपी रोग है, इसलिए इसे भोजन कराना ठीक नहीं है। इसके बजाय इसके निरोगी पुत्रों में से किसी को करवा दिया जाय। खंडित प्रतिमा के
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