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हिंसक की स्थिति
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २८ से २९ तथा धन देकर सत्कार करके कहा-'देखो अब मेरा एक काम तुम्हें अवश्य करना होगा। इस राजमार्ग से जो भी आदमी | छत्र-चामर सहित हाथी पर बैठकर आये, उसकी दोनों आँखें गुलेल से फोड़ देना।' गड़रिये ने ब्राह्मण की बात मंजूर की। क्योंकि पशु के समान पशुपालक विचारपूर्वक कार्य नहीं करते। गड़रिया इसी ताक में बैठा था। इतने में ही राजा की सवारी आयी। गड़रिये ने दो दीवारों के बीच खड़े होकर निशाना बांधा और सनसनाती हुई दो गोलियां फेंकी, जिनसे राजा की दोनों आंखे फूट गयी। देवाज्ञा सचमुच अनुल्लंघनीय होती है। बाज पक्षी जैसे कौएँ को पकड़ लेता है, वैसे ही राजा के सिपाहियों ने तुरंत उस गड़रिये को पकड़ लिया। खूब पीटे जाने पर उसने इस अप्रिय-कार्य प्रेरक ब्राह्मण का नाम बताया। यह सुनते ही राजा ने क्रुद्ध होकर कहा-'धिक्कार है, ब्राह्मण जाति को! ये पापी जिस बर्तन में भोजन करते हैं, उसे ही फोड़ते हैं। इससे तो कुत्ता अच्छा, जो कुछ देने पर दाता के प्रति कृतज्ञ होकर स्वामिभक्ति दिखाता है। ऐसे कृतघ्न ब्राह्मणों को देना कदापि उचित नहीं दुसरो को ठगने वाले क्रुर हिंस्र पशु मांसाहारी ब्राह्मणों के जनकों को ही सर्वप्रथम सजा देनी चाहिए।' यों कहकर अत्यंत क्रुद्ध राजा ने उस ब्राह्मण को उसके पुत्र, मित्र और बंधु के सहित मुट्ठी में आये हुए मच्छर की तरह मरवा डाला। उसके पश्चात् आंखों से अंधे और क्रोधवश हृदय से अंधे उस चक्रवर्ती ने पुरोहित आदि सभी निर्दोष ब्राह्मणों को भी खत्म कर दिया। फिर प्रधान को आज्ञा दी-प्रतिदिन ब्राह्मणों को मारकर उन 'घायल हुए ब्राह्मणों की आंखे थाल में भरकर मेरे सामने वह थाल हाजिर करो।' राजा के रौद्र परिणाम (अध्यवसाय) जानकर बुद्धिमान मंत्री प्रतिदिन लसोड़ के फलों से (बडगुंदों के बीज)थाल भरकर राजा के सामने प्रस्तुत कर देता था। 'यह थाल ब्राह्मणों की आंखे से पूर्ण भरा हुआ है।' यों कहते ही राजा उस थाल में रखे तथाकथित नेत्रों पर टूट पड़ता
और दोनों हाथों से बार-बार उन्हें मसलता था। अब ब्रह्मदत्त को स्त्रीरत्न पुष्पवती के स्पर्श में इतना आनंद नहीं आता था, जितना कि उस थाल में रखे हुए तथा कथित नेत्रों के स्पर्श में आता था। शराबी जैसे शराब का प्याला नहीं छोड़ता, वैसे ही ब्रह्मदत्त दुर्गति के कारणभूत उस थाल को कदापि अपने सामने से दूर नहीं छोड़ता था। अंधा ब्रह्मदत्त प्रतिदिन श्लेष्म की तरह चिकने और नेत्र जितने बड़े लसोड़ के फलों को ब्राह्मणों की आंखें समझकर क्रूरतापूर्वक मसलता था, मानो फलाभिमुख पाप रूपी वृक्ष के पौधे तैयार कर रहा हो। इस क्रूर कार्य को नित्य जारी रखने के कारण उसके रौद्रध्यान के परिणामों में दिनानुदिन वृद्धि होने लगी। 'शुभ या अशुभ जो कोई भी कर्मबंध हो, प्रति दिन के उसी के विचार से वह बड़े से बड़ा (विशाल) ही होता है।' इस न्याय से पाप रूपी कीचड़ में फंसे हुए सूअर के समान ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को रौद्रध्यान-परंपरा से कर्म बांधते हुए सोलह वर्ष व्यतीत हो गये। इस प्रकार कुल सात सौ सोलह वर्ष का आयुष्य पूर्णकर हिंसानुबंधी परिणाम के फलानुरूप ब्रह्मदत्त सातवीं नरक का मेहमान बना।।२७।।
हिंसा करने वाले की फिर निंदा करते हैं।८४। कुणिर्वरं वरं पङ्गुरशरीरी वरं पुमान् । अपि सम्पूर्णसर्वाङ्गो, न तु हिंसा परायणः ॥२८॥ अर्थ :- हिंसा नहीं करने वाले लूले, लंगड़े, अपाहिज (विकलांग) और कोढ़िये अच्छे, मगर संपूर्ण अंग वाले
हिंसा करने वाले अच्छे नहीं ॥२८॥ व्याख्या :- हाथों और पैरों से रहित लूले, लंगड़े, बेडौल, कोढ़ी और विकलांग होकर भी जो अहिंसक है, वह जीव अच्छा है; लेकिन सभी अंगों से परिपूर्ण होकर भी जो हिंसा करने में तत्पर है; वह जीव अच्छा नहीं।
यहां यह प्रश्न होता है कि रौद्रध्यान-परायण पुरुष यदि शांति के लिए प्रायश्चित के रूप में हिंसा करे अथवा मछुए आदि अपनी-अपनी कुलाचार-परंपरा से प्रचलित मछली आदि मारकर हिंसाएँ करते हैं और उनके करते समय उनके परिणाम रौद्रध्यान के नहीं होते तो क्या उन्हें उक्त हिंसा से हिंसा का पाप नहीं लगेगा? ।।२८।।
इसके उत्तर में कहते हैं।८५। हिंसा विघ्नाय जायेत, विघ्नशान्त्यै कृतापि हि । कुलाचारधियाऽप्येषा, कृता कुलविनाशिनी।।२९॥ अर्थ :- विघ्न की शांति के लिए की हुई हिंसा भी विघ्न के लिए होती है। कुलाचार की बुद्धि से की हुई हिंसा
कुल का विनाश करने वाली होती है ।।२९।। व्याख्या :- अविवेक या लोभ से विघ्नशांति के निमित्त अथवा कुल-परंपरा से प्रचलित हिंसा चाहे रौद्रध्यान वश
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