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ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ | चांडाल भी नहीं करता । अतः तूं जा और दीर्घराजा से कहना कि ब्रह्मदत्त आ रहा है, या तो उसके साथ युद्ध कर या
अपना काला मुंह लेकर यहां से भाग जा। यों कहकर दूत को वापिस भेज दिया । तदनंतर ब्रह्मदत्त अबाध गति से आगे | बढ़ता हुआ कांपिल्यपुर आया। वहां पहुंचते ही जैसे मेघ सूर्य- सहित आकाश को घेर लेता है, वैसे ही उसने दीर्घराजा | सहित सारे नगर को चारों ओर से घेर लिया। बांबी पर डंडे की चोट लगाने पर जैसे महासर्प बांबी से बाहर निकलता है, वैसे ही दीर्घराजा अपने सारे परिवार के साथ युद्धसामग्री सहित नगर से बाहर निकला। इधर चूलनी रानी को संसार से अत्यंत वैराग्य हो जाने से उसने पूर्णा नाम की प्रवर्तिनी साध्वी से दीक्षा ग्रहण करली और क्रमशः मुक्ति की अधिकारिणी बनी । नदी के जलचर जैसे समुद्र के जलचरों से भिड़ जाते हैं, वैसे ही उधर दीर्घराजा के सैनिक ब्रह्मदत्त के सैनिकों से भिड़ गये। दीर्घराजा के बहुत से सैनिक घायल होकर गिर पड़े। तब दीर्घराजा स्वयं क्रोध से दांत पीसता | हुआ सूअर के समान भयंकर मुखाकृति बनाकर शत्रु को मारने के लिए दौड़ा। लेकिन ब्रह्मदत्त की पैदल सेना, रथसेना और अश्वारोही सेना नदी के तेज प्रवाह की तरह तेजी से चारों ओर फैल गयी। उसके बाद ब्रह्मदत्त भी क्रोध से | लाल-लाल आँखें करके हाथी के साथ जैसे हाथी भिड़ता है, वैसे ही गर्जना करता हुआ दीर्घराजा के साथ स्वयं भिड़ गया। प्रलयकाल के समुद्र की तरंगों के समान वे दोनों परस्पर एक दूसरे पर अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे। इसी बीच अवसर आया है, ऐसा जानकर सेवक के समान चारों ओर प्रकाश फेंकता हुआ एवं सर्वदिग्विजयशाली एक चक्ररत्न ब्रह्मदत्त की सेवा में प्रकट हुआ। ब्रह्मदत्त उस चक्ररत्न से उसी समय दीर्घराजा का काम तमाम कर दिया। गोह को | मारने में बिजली को कौन-सा परिश्रम करना पड़ता है? क्या देर लगती है? मागधों के समान स्तुति करते हुए देव 'ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की जय हो,' इस प्रकार बोलते हुए उस पर पुष्प वृष्टि करने लगे। नागरिक लोग ब्रह्मदत्त को पिता, | माता या देवता के रूप में देखने लगे। इंद्र जैसे अमरावती में प्रवेश करता है, वैसे ही उसने कांपिल्यपुर में प्रवेश किया। राज्यासीन होते ही ब्रह्मदत्त राजा ने पहले जिन-जिन के साथ विवाह किया था, उन पत्नियों को सब जगह से बुलवा ली; और उन सब में पुष्पवती को 'स्त्रीरत्न' के रूप में प्रतिष्ठित की। फिर अलग-अलग स्वामित्व की राज्यसीमाओं | वाले छहों खंडों पर विजय प्राप्त करके ब्रह्मदत्त ने पृथ्वी को एक खंड रूप बना दी । अर्थात् एक छत्र चक्रवर्ती राज्य बना | दिया। लगातार बारह वर्ष तक सब दिशाओं के राजाओं ने आ-आकर भरत को जैसे अभिषिक्त किया था, वैसे ही उसका भी अभिषेक किया। चौसठ हजार स्त्रियों से विवाह करके उन्हें अपने अंतःपुर में रखा। इस प्रकार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती पूर्वजन्म में किये हुए तप रूपी वृक्ष के फल स्वरूप समग्र राज्यसुख का उपभोग कर रहा था। एक दिन महल में नाटक, संगीत, नृत्य एवं रागरंग चल रहा था; इसी बीच उसकी एक दासी ने देवांगनाओं द्वारा गूंथा हुआ एक फूलों का एक | आश्चर्यकारी गुच्छा ब्रह्मदत्त के हाथ में समर्पित किया । ब्रह्मदत्त उसे गौर से देखते-देखते विचार करने लगा- 'ऐसा फूलों का गुच्छा मैंने पहले भी कहीं पर देखा है।' मन में बार-बार ऊहापोह करने पर उसे इस जन्म से पहले के ५ जन्मों | का स्मरण हो आया। फिर उसे याद आया कि मैंने ऐसा गुच्छा सौधर्म देवलोक में देखा था। पहले के ५ जन्मों में साथ| साथ रहे अपने सहोदर का तीव्र स्मरण होने से राजा अधीर हो उठा। वह बेहोश होकर धड़ाम से गिर पड़ा। चक्रवर्ती | की यह हालत देखकर चंदनजल के छींटे दिये; जिससे वह होश में आया। स्वस्थ होने पर वह विचार करने लगा'मेरे पूर्वजन्म का सगा भाई मुझे कैसे और कहां मिलेगा? उसे पहचानने के लिए 'आस्व दासौ मृगौ हंसी, मातंगावमरौ तथा । ' इस प्रकार का पूर्वजन्म परिचायक आधा श्लोक सेवक को दिया। नगर में ढिंढोरा भी पिटवा दिया | कि 'मेरे इस आधे श्लोक को जो पूर्ण कर देगा, उसे मैं अपना आधा राज्य दे दूंगा।' इस घोषणा को सुनकर नगर के लोगों में इस आधे श्लोक को जानने की बड़ी उत्सुकता जागी । सबने अपने नाम के समान इसे प्रायः कंठस्थ कर लिया।
परंतु श्लोकार्थ लिखित समस्या की पूर्ति कोई भी नहीं कर सका। उस समय पुरिमताल नगर में चित्र का जीव सेठ के पुत्र के रूप में जन्मा था। उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया था । अतः उसने दीक्षा लेकर ग्रामानुग्राम विहार किया । 1. एक कथा में चूलनी के भागकर जाने का एवं मार्ग में साध्वी के संसर्ग से दीक्षा लेने का वर्णन है।
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