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ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ साथ लेकर तीर्थयात्रा के लिए चले। स्नेहीजन को धर्मकार्य में लगाना चाहिए। हम वहां से अष्टापद-पर्वत पर पहुंचे। वहां मणिरत्न से निर्मित, प्रमाणोपेत वर्णयुक्त श्री तीर्थंकर-प्रतिमाओं के दर्शन किये तथा विधिवत् अभिषेक, विलेपन एवं पूजा करके, उनकी प्रदक्षिणा देकर एकाग्र चित्त से हमने भक्तियुक्त चैत्य-वंदन किया। वहां से बाहर निकलते ही रक्तवर्णीय वृक्ष के नीचे दो चारणमुनियों को देखा; मानो वे मूर्तिमान तप और शम हों। उन्हें वंदन करके हमने श्रद्धापूर्वक अपना अज्ञानांधकार दूर करने वाली साक्षात् चंद्र-ज्योत्सना के समान उनकी धर्मदेशना सुनी। उसके बाद अग्निशिख ने मुनिवर से पूछा-'इन दोनों कन्याओं का पति कौन होगा?' उन्होंने कहा-'इन दोनों के भाई को जो मारेगा, वही इनका पति होगा।' इस बात को सुनते ही हिमपात से जैसे चंद्रमा फीका पड़ जाता है, वैसे ही पिताजी
और हम दोनों का चेहरा फीका पड़ गया। फिर हमने वैराग्यगर्भित वचनों से उन्हें कहा-'पिताजी! आज ही तो आपने मुनिवर से संसार की असारता का उपदेश सुना है और आज ही आप विषाद रूपी निषाद से इतने पराभूत हो रहे हैं? इस प्रकार के विषयोत्पन्न सुख में डूबने से क्या लाभ?' तब से हम सब अपने भाई की सुरक्षा का ध्यान रखते थे। एक बार हमारे भाई ने भ्रमण करते हए आपके मामा पुष्पचल की पत्री पुष्पवती को देखा। उसके अदभुत रूप-लावण्य को देखकर वह मोहित हो गया। फिर उस दुर्बुद्धि ने उस कन्या का जबर्दस्ती अपहरण किया। 'बुद्धि सदा कर्मानुसारिणी होती है।'कन्या की दष्टि सहन नहीं होने से वह स्वयं विद्या साधन करने गया। उसके बाद का सारा हाल आप जानते ही हैं। उस समय पुष्पवती ने हमारे भाई के मरण-संबंधी दुःख को दूर करने के लिए धर्म की बातें कहीं और यह भी बताया कि तुम्हारा ईष्ट भर्ता ब्रह्मदत्त यहीं पर आया हुआ है। मुनि की वाणी कभी मिथ्या नहीं होती। हमने उस बात
को स्वीकार किया। परंतु उतावल में पुष्पवती ने लाल के बदले सफेद झंडी हिला दी, जिससे आप हमें छोड़कर चले | गये। हमारे भाग्य की प्रतिकूलता के कारण आप नहीं पधारें। हमने आपकी वहां बहुत खोज की। पर आप कहीं दिखायी
न दिये। आखिर हार-थककर हम वापिस यहां आयीं। हमारे अहोभाग्य से आप यहां पधारे हैं। पुष्पवती के कथन के | अनुसार हम आपको पहले ही स्वीकृत कर चुकी हैं। अतः अब आप ही हम दोनों की गति हैं। कुमार ने दोनों नारियों को अनुरक्त जानकर उनके साथ गांधर्व-विवाह किया। सरिताओं को सागर का संगम प्रिय होता है, वैसे ही स्त्रियों को अपने पतियों का संगम प्रिय होता है। गंगा और पार्वती के साथ जैसे महादेव क्रीड़ा करते थे, वैसे उन दोनों कामिनियों के साथ क्रीड़ा करते हुए ब्रह्मदत्त ने वह रात वहीं पर बितायी। प्रातः कुमार ने प्रस्थान करते समय उन दोनों को सस्नेह आज्ञा दि कि जब तक मुझे राज्य न मिले, तब तक तुम दोनों पुष्पवती के पास ही रहना। दोनों ने कुमार की आज्ञा शिरोधार्य की।
कुमार के वहां से प्रस्थान करते ही वह मंदिर और घर आदि सब गंधर्वनगर के समान अदृश्य हो गये। वहां से लौटकर ब्रह्मदत्त रत्नवती की तलाश करने के लिए उस तापस-आश्रम में पहुंचा। परंतु वहां उसे न पाकर वहां खड़े एक शुभाकृतिमान पुरुष से पूछा-'महाभाग! दिव्य वस्त्र पहनी हुई, रत्नाभूषणों से सुशोभित किसी स्त्री को आपने आज या कल देखी है?' उसने उत्तर दिया-'हां, महानुभाव! कल मैंने 'हे नाथ!' इस प्रकार रुदन और विलाप करती हुई एक स्त्री देखी थी। परंतु उसका चाचा उसे पहचानकर अपने साथ ले गया है।' रत्नवती के चाचा को ब्रह्मदत्त का पता लगा तो उसे अपने यहां बुला लिया। महान ऋद्धि वाले भाग्यशालियों को सभी वस्तु नयी मालुम होती है। उसके | साथ विषयसुखानुभव करते हुए काफी समय व्यतीत हो गया। एक दिन कुमार ने वरधनु का मरणोत्तर कार्य प्रारंभ किया। दूसरे दिन कुमार ब्राह्मणों को भोजन दे रहा था कि वरधनु की-सी आकृति का एक ब्राह्मण-वेषधारी व्यक्ति वहां आकर कहने लगा-'यदि मुझे भोजन दोगे तो साक्षात् वरधनु को दोगे।' कानों को अमृतरस ऐसे प्रियवचन ब्रह्मपुत्र ने सुने और उसे सिर से पैर तक गौर से देखकर इस तरह छाती से लगाया. मानो अपनी आत्मा को उसकी आत्मा बना लिया हो। फिर हर्षाथ से उसे स्नान कराकर कमार घर में ले गया। स्वस्थ होने पर कमार के द्वारा पूछने पर उस अपना सारा वृत्तांत इस प्रकार सुनाया
'आपके सो जाने के बाद दीर्घराजा के सैनिक-से लगते चोरों ने मुझे घेर लिया। वहीं वृक्ष के बीच में छिपे एक चोर ने इतने जोर से बाण मारा कि मैं आहत होकर वहीं जमीन पर गिर पड़ा। होश में आने पर धीरे से सरककर लताओं
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