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ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ स्तंभित कर दी, जिस तरह मेघधारा अग्नि को स्तंभित कर देती है। कुमार द्वारा की गयी उस बाणवृष्टि से उभय चोरसेनापति और उनकी सेना तितर-बितर होकर भाग गयी। सामने प्रहार करने वाला सिंह हो तो वहां हिरण कैसे टिक सकता है? मंत्री-पुत्र ने कुमार से कहा-'स्वामिन्! युद्ध करके आप बहुत थक गये होंगे। अतः घड़ीभर इस रथ पर ही सो जाईए। पर्वत की तलहटी में जैसे जवान हथिनी के साथ हाथी सो जाता है, वैसे ही ब्रह्मदत्त भी रथ में रत्नवती के साथ सो गया।
कुछ समय बाद जब राजकुमार जागा तो रथ के सारथी के रूप में मंत्रीपुत्र को उसने नहीं देखा। अतः 'पानी लेने गया होगा;' ऐसा विचारकर बहुत देर तक आवाज दी। परंतु सामने से कोई उत्तर नहीं मिला और रथ के आगे के भाग खून से सना देखा तो कुमार सहसा चिल्ला उठा-'हाय मैं मारा गया!' यों विलाप करते-करते वह मूर्च्छित होकर रथ में गिर पड़ा। कुछ देर बाद होश आने पर वह खड़ा हुआ। फिर कुछ स्मरण कर साधारण मनुष्यों की तरह सिसकियां
। 'मित्र. वरधन! हाय! तम कहां चले गये. मझे छोडकर!' इस प्रकार वह विलाप करने लगा। रत्नवती ने ढाढ़स बंधाते हुए समझाया- 'मुझे नहीं लगता कि आपके मित्र की मृत्यु हुई है। अतः नाथ! उसके लिए ऐसे अमांगलिक शब्द बोलना योग्य नहीं है। आपके कार्य के निमित्त से वह यहीं कहीं पर गया होगा। यह निःसंदेह बात है कि स्वामी के कार्य के लिए कभी-कभी बिना पूछे भी सेवक जाते हैं। मेरा मन कहता है, वह आपकी भक्ति के प्रभाव से सुरक्षित ही है और अवश्य ही वापिस आयेगा। स्वामीभक्ति का प्रभाव ही ऐसा है कि वह सेवकों के लिए कवच के समान कार्य करती है। स्थान पर पहुंचकर हम सेवकों के द्वारा उसकी खोज करायेंगे। अब यमराज सरीखे इस भयंकर वन में जरा भी रुकना ठीक नहीं है। रत्नवती के कथन से आश्वस्त होकर कुमार ने घोड़ों को आगे चलाया और मगधराज्य के सीमावर्ती एक गांव में पहुंचे। 'घोड़े और वायु के लिए दूर ही क्या है?' अपने घर में बैठे हुए गांव के | मुखिया ने उन्हें जाते देखा तो स्वागतपूर्वक अपने घर ले आया। 'आकृति के देखने मात्र से ही अज्ञात महापुरुषों की पूजा होती है।' जब कुमार कुछ स्वस्थ हुआ तो गांव के मुखिया ने उससे पूछा-'आपके चेहरे से मालूम होता है, आप शोकातुर हैं। अगर कोई आपत्ति न हो तो मुझे अपनी चिंता का कारण बताइए।' कुमार ने कहा-'चोरों के साथ युद्ध करते हुए मेरा मित्र कहीं गायब हो गया है। उसका पता नहीं चल रहा है। इसलिए हम चिंतित है।' इस पर मुखिया ने कहा-'जैसे हनुमानजी ने सीता का पता लगाया था, वैसे हम भी उसका पता लगाकर लायेंगे।' यह कहकर गांव की जनता के साथ मुखिया ने सारी अटवी छान डाली; मगर उसका कहीं पता नहीं चला। गांव के नेता ने लौटकर कहा-'इस महावन में तो प्रहार से घायल हुआ कोई नजर नहीं आया; हां! यह एक बाण जरूर वहां मिला है। मालुम | होता है, वरधनु अवश्य मर गया है।' यह सुनते ही ब्रह्मदत्त और अधिक शोकांधकार में डूब गया। थोड़ी ही देर में उस शोकांधकार को प्रत्यक्ष बनाने के हेतु रात्रि का आगमन हुआ। रात के चौथे प्रहर में वहां अचानक चोर चढ़ आये। परंत कमार के ललकारने पर वे सब उलटे पैरों भाग गये। उसके बाद गांव के नेता के पथप्रदर्शन में चलते हुए कुमार और रत्नवती दोनों राजगृह पहुंचे। वहां नगर के बाहर एक तापस के आश्रम में रत्नवती को ठहरा दिया। कुमार के वहां से चलकर नगर में प्रविष्ट होते ही उसने महल के झरोखे में खड़ी हुई दो नवयौवना कामिनियाँ देखीं; मानो वे साक्षात् रति और प्रीति हो। उन दोनों ने कुमार से कहा-'कुमार! प्रीतिपरायणजनों के प्रेम को छोड़कर चले जाना क्या आपके लिए उचित है?' कुमार ने कहा-ऐसे प्रेमपरायण कौन है? और कब मैंने उनका त्याग किया है? यह तो बताओ कि तुम कौन हो? यों पूछते ही उन्होंने स्वागत करते हुए कहा-'नाथ! पहले आप यहां पधारिये और विश्राम करिए। आप प्रसन्न तो हैं न?' यो मधुरवचनों से सत्कार करती हुई वे दोनों ब्रह्मदत्त को घर में ले गयी। उसे स्नान, भोजन आदि कराने के पश्चात् अपनी यथार्थ कथा इस प्रकार कहने लगीं_ विद्याधरों के आवास से युक्त स्वर्णशिलामयी पृथ्वी के तिलक-समान वैताढ्य-पर्वत की दक्षिण श्रेणी में शिवमंदिर नामक नगर में अलका परी में गद्यक की तरह ज्वलनशिख नाम का राजा राज्य करता के तेजस्वी मुखकांति वाली, विद्युत्प्रभा के समान विधुशिखा नाम की पत्नी थी। उसको नाट्योन्मत्त नामक पुत्र के बाद खंडा और विशाखा नाम की हम दोनों प्राणाधिका पुत्रियाँ हुई। एक बार पिताजी अपने मित्र अग्निशिख और हम सबको
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