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ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ घर की तरह रहने लगे। एक दिन वरधनु के पास आकर बुद्धिल के नौकर ने कान में कुछ कहा। उसके चले जाने के बाद वरधनु ने ब्रह्मदत्त से कहा-'भाई! उस दिन बुद्धिल ने ५० हजार रुपये देने की पेशकश की थी। आज उस बात को आप देखना।' उसके बाद शुक्रग्रह की तरह शोभायमान गोल बड़े-बड़े मोतियों का एक हार कुमार को बताया। कुमार ने हार पर बंधा हुआ अपने नाम का लेख देखा। इतने में मानो साक्षात् वाचिक लेख हो, इस रूप में वत्सा नाम की एक तापसी आयी। उसने दोनों के मस्तक पर अक्षत डालकर आशीर्वाद दिया। फिर वरधनु को एक ओर ले जाकर उसके कान में कुछ कहकर वह चली गयी। मंत्रीपुत्र ने वह बात ब्रह्मदत्त से कही कि वह तापसी हार के साथ बंधे हुए लेख का प्रतिलेख मांगती थी। यह श्रीब्रह्मदत्त-नामांकित लेख उसने दिया है।' मैंने उससे पूछा-'यह ब्रह्मदत्त कौन है? तब उसने कहा-'इस भूमंडल पर मानो रति ही कुमारिका के रूप में रूप बदलकर आयी हो, ऐसी इस नगर की सर्वश्रेष्ठिपुत्री रत्नवती है। उसने अपने भाई सागरदत्त और बुद्धिल के मुर्गों की लड़ायी के दिन ब्रह्मदत्त को देखा था। | उसी समय से वह कामज्वर से पीडित है। उसे किसी भी प्रकार से चैन नहीं मिल रहा है। दिनोंदिन दुबली होती जा रही है। रात-दिन वह यही रटन किया करती है कि 'मुझे ब्रह्मदत्त का शरण है।' एक दिन मुझे अपने हाथ से पत्र लिखकर ब्रह्मदत्त को हार अर्पण करने के साथ उसे पहुंचाने को कहा। मैंने सेवक द्वारा वह पत्र भेजा था। यों कहकर वह खड़ी रही। मैंने भी प्रत्युत्तर के रूप में पत्र लिखकर उसे चली जाने की आज्ञा दी। उस दिन से ब्रह्मदत्तकुमार भी मध्याह्न के सूर्य की प्रखर किरणों से तपे हुए हाथी के समान दुर्निवार्य कामसंतोप से तस रहने लगा। सचमुच, कामज्वर के ताप से तस मनुष्य सुखानुभव नहीं कर सकता। । दूसरी ओर दीर्घराजा द्वारा भेजे हुए राजसेवकों ने सारी कौशांबी नगरी छान डाली। शरीर में जड़े हुए तीखे कांटों के समान इन दोनों की खोज में वे अब इधर-उधर भाग-दौड़कर रहे थे। कौशांबीनरेश की आज्ञा से भी नगरी में उन दोनों की खोज होने लगी। तब सागरदत्त सेठ ने निधान के समान अपने तलघर में उन्हें छिपाकर उनकी रक्षा की। रात में जब उनकी बाहर जाने की इच्छा हुई तो सागरसेठ उन्हें रथ में बिठाकर कुछ दूर तक साथ गया। बाद में वह वापिस लौट आया। सागरसेठ के जाने के बाद जब वे आगे बढ़ने लगे तो एक उद्यान में नंदनवन की देवी के समान घोड़े जुते हुए रथ में बैठी हुई एक सुंदरी को देखा। उसीने उन्हें आदरपूर्वक पूछा-'आपको इतनी देर क्यों लगी?' उन दोनों ने भी उससे पूछा-'भद्रे! तुम हमसे कैसे परिचित हो? जानती हो, हम कौन हैं?' इस पर उसने उत्तर दिया-'इस नगर में कुबेर के दूसरे भाई के समान महाधनी धनप्रवर नाम का सेठ है। बुद्धि के आठ गुणों पर सर्वोपरि विवेक के समान उस सेठ के आठ पुत्रों पर मैं विवेकश्री नाम की उनकी पुत्री हैं। युवावस्था आते ही मैंने अत्युत्तम वर प्राप्त होने की कामना से इस उद्यान में अधिष्ठित यक्ष की बहुत आराधना की। अधिकांश स्त्रियों का इसके सिवाय और कोई मनोरथ नहीं होता। भक्ति से तुष्ट होकर यक्षप्रवर ने वरदान दिया- 'ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती तेरा पति होगा।' और यह भी बता दिया कि सागरदत्त और बुद्धिल सेठ के मुर्गों की लड़ाई में श्री वत्स चिह्नवाला तुम्हारे समान रूपवान जो व्यक्ति अपने मित्र के साथ आयेगा, उसे तुम अपना पति समझना। जिस समय ब्रह्मदत्त मेरे यक्षायतन में होगा, तभी उसके साथ तेरा प्रथम मिलन होगा। इसलिए हे सुंदर! मैंने जान लिया है कि आप वही हैं। अतः अब आप पधारो। जैसे ताप से पीड़ित व्यक्ति को जल संस्पर्श शांति देता है, उसी तरह दीर्घकाल से मुझ विरहताप से पीड़ित को आप संगम स्पर्श से शांति दो।' 'अच्छा, ऐसा ही होगा।' यों कहकर कुमार ने उस अनुरक्ता को स्वीकार किया। उसके आग्रह पर दोनों उसके रथ में बैठे। 'कहां चलना है?' यह पूछने पर उस सुंदरी ने बताया कि-'मगधपुर में, मेरा चचेरा भाई धनावह है। वह हमारा बहुत सत्कार करेगा। इसलिए वहीं चले तो अच्छा है।' इस प्रकार रत्नवती के कहने पर मंत्रीपुत्र ने सारथी बनकर घोड़ों की लगाम उसी और मोड़ी। ब्रह्मदत्त कौशांबी को पारकर ज्यों ही यमराज की क्रीड़ाभूमि-सी एक भयंकर अटवी में आया. त्यों ही उसने अपने सामने भयंकर सकंटक और कंटक नामक दो भयंकर चोर सेनापतियों को देखा। बडे सअर को जैसे कुत्ते रोक लेते हैं, उसी प्रकार उन्होंने ब्रह्मदत्त को रोक लिया। और कालरात्रि के पुत्र सरीखे उन दोनों भाइयों ने सहसापूर्वक उत्तेजित होकर सेना के सहित ब्रह्मदत्त पर एकदम बाणवर्षा कर दी। बाणों से सारा आकाशमंडल छा गया। कुमार ने भी धनुष-बाण धारण कर सिंह-गर्जना करते हुए बाणों की अखंडधारा से चोरसेना को उसी तरह
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