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ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २८ ने मालिक की तरह कुमार की विविध प्रकार से आवभगत की। वह सारी रात पलक मारते ही बीत गयी। फिर मंत्री कुमार को राजमहल में ले गया। वहां राजा ने बालसूर्य के समान अर्ध्य आदि से उसका स्वागत-सत्कार किया। उसके बाद राजा ने कुमार का वंश आदि पूछे बिना ही उसे अपनी पुत्री दे दी। 'आकृति से ही पुरुष के गुण आदि सब जाने जा सकते हैं।' कुमार और राजकुमारी ने एक दूसरे के प्रति अनुराग-समर्पण-सूचक परस्पर हस्तमिलाप करके विवाह किया। एक बार एकांत में क्रीड़ा करते हुए ब्रह्मदत्त ने राजकुमारी से पूछा-'प्रिये! तुम्हारे पिताजी ने वंश आदि जाने बिना ही मुझ सरीखे अज्ञात व्यक्ति को तुम्हें कैसे दे दी? मनोहर दंतावली की किरणों से स्वच्छ ओष्ठदल वाली श्रीकांता ने इसके उत्तर में कहा-'प्रियतम! वसंतपुर नगर में शबरसेन नाम का राजा था। उसके पुत्र ने क्रूरगोत्र वाले राजाओं के साथ मिलकर मेरे पिताजी को राजगद्दी से उतार दिया। तब से मेरे पिता ने बल-वाहन-सहित इस पल्ली में आश्रय लिया है। जैसे बैंत को झटपट झका दिया जाता है. वैसे ही यहां रहकर मेरे पिताजी ने वन्य भीलों को: सहयोग से डाका डालकर गाँवों को उजाड़ते हुए वे अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। संपत्ति मिलने के चार उपायों के समान इनके चार पुत्र हैं। चार पुत्रों के बाद इनके यहां एक अतिप्रिय पुत्री का जन्म हुआ; वह मैं हूं।' यौवन की चौखट पर पैर रखते ही पिताजी ने मुझ से कहा-'बेटी! सभी राजा मेरे शत्रु बने हुए हैं। अतः तुम यहीं रहकर अपने वर की तलाश करते रहना और तुम्हें जो वर पसंद हो, उसके लिए मुझे कह देना।' तब से लेकर अब तक मैं चकवी के समान सदा सरोवर के तट पर रहकर इस मार्ग से आते-जाते अनेक यात्रियों को देखती रहती थी। किये हुए मनोरथ की प्राप्ति तो स्वप्न में भी दुर्लभ होती है। मगर आर्यपुत्र! मेरे भाग्य की प्रबलता से ही आप यहां पधारे हैं। इसके बाद का हाल तो आप जानते ही हैं।' ।
एक दिन पल्लीपति राजा एक गांव को लूटने के लिए गया। उसके साथ कुमार भी गया। क्योंकि क्षत्रियों का यही क्रम होता है। जब गांव लूंटा जा रहा था, तभी सरोवर के किनारे वरधनु ब्रह्मदत्त के चरणकमलों में आकर हंस की तरह गिरा। कुमार के गले से गला लगाकर वरधनु मुक्तकंठ से रोने लगा। सच है, प्रिय व्यक्ति के मिलने से सारा दुःख अंदर से उभरकर बाहर आ जाता है। कुमार ने उसे अमृत की धूंट के समान अतिमधुर वार्तालाप से आश्वासन देकर अब तक का सारा वृतांत आद्योपांत सुनाने को कहा। वरधनु ने कहना प्रारंभ किया-'स्वामिन्! उस समय बड़ के पेड़ के नीचे आपको छोड़कर मैं आपके लिए पानी की तलाश में जा रहा था। कुछ आगे बढ़ा ही था कि मैंने अमृतकुंड के समान एक सरोवर देखा। मैं आपके लिए कमलिनी-पत्र के संपुट (दोने) में सरोवर से पानी भरकर लेकर आ ही रहा था कि अचानक यमदूत के समान बख्तर पहने हुए कुछ सुभटों ने आकर मुझे घेर लिया और पूछने लगे-'वरधनु! सच-सच बताओ ब्रह्मदत्त कहाँ है?' मैंने उनका आशय भांपकर कहा-'मुझे पता नहीं है।' यह कहते ही वे मुझे चोर की भांति बेखटके धड़ाधड़ मारने लगे। मैंने बात बनाते हुए कहा-'ब्रह्मदत्त को तो कभी का सिंह मारकर खा गया है।' उन्होंने कहा-'तो उसका स्थान बताओ कि सिंह ने उसे कहां मारा है?' तब मैं इधर-उधर घूमकर आपको ढूंढने के बहाने | से आपके सामने आया और आपको वहां से भागने का संकेत किया। उन्हें बताया कि सिंह ने उसे यहीं मारा था। फिर मैंने परिव्राजक द्वारा दी हुई जादूई गोली मुंह में रखी, जिसके प्रभाव से मैं बिलकुल निश्चेष्ट और मूर्च्छित हो गया। मुझे मरा हुआ समझकर उन्होंने वहीं छोड दिया। उनके चले जाने के काफी देर बाद मैंने मुंह में से वह गोली बाहर निकाली
और खोये हुए निधान को ढूंढने की तरह आपको ढूंढने चल पड़ा। कई गांवों में भटकने के बाद मैंने साक्षात् मूर्तिमान |तपः पुंज-से एक परिव्राजक महात्मा के दर्शन किये। उन्हें नमस्कार करके मैं बैठा ही था कि उन्होंने मुझ से पूछा'वरधनु! मैं धनु का मित्र वसुभाग हूं। यह तो बता कि ब्रह्मदत्त इस समय पृथ्वी पर कहां रहता है?।' मैंने भी उन पर विश्वास करके उन्हें सारी बातें ज्यों की त्यों कह दीं। मेरी दुःखकथा सुनकर धुंए से म्लान हुए मुख की तरह उदास| मुद्रा में उन्होंने मुझे बताया कि-जब लाक्षागृह जलकर खाक हो गया था, तब दीर्घराजा ने सुबह निरीक्षण कराया तो वहां एक शब मिला। परंतु बाकी के दो शव नहीं मिले। मगर वहां पर सुरंग जरूर मिली; जिसके अंत में घोड़े के पैरों की निशानी थी। हो न हो वे धनुमंत्री की सुझबूझ से भाग गये हैं; यह जानकर दीर्घराजा ने मंत्री पर कोपायमान होकर आज्ञा दी-'सूर्य की किरणों के समान अबाधगति से कूच करने वाली सेना प्रत्येक दिशा में भेजो, ताकि वह उन दोनों
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