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ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ विद्यासाधन कर रहा है। यदि आज उसे विद्या सिद्ध हो जायेगी तो आज ही वह मेरे साथ विधिवत् विवाह कर लेगा। मैं इसी चिंता में हूँ कि उसके चंगुल से कैसे छूटकारा पाऊँ!' यह सुनकर कुमार ने बांस के ढेर में स्थित उस व्यक्ति को खत्म कर देने का सारा वृत्तांत बताया। प्रिय की प्राप्ति और अप्रिय का विनाश होने से पुष्पवती के हर्ष का पार न रहा। परंपरानुरागी इस युगल ने वहीं गांधर्व-विवाह कर लिया। मंत्रविधि के बिना भी स्वेच्छा से किये हुए ऐसे विवाह को क्षत्रियों में उत्तम माना जाता है। विविध प्रकार के मधुर वचनों से उसके साथ संलाप व रतिक्रीड़ा करते हुए वह रात एक पहर के समान झटपट बीत गयी। प्रातःकाल होते ही ब्रह्मदत्त ने आकाश में खेचर-स्त्रियों की भेड़ों की-सी आवाज सुनी। उसने आश्चर्यमुद्रा में पुष्पवती से पूछा-'बिना मेघों के अकालवृष्टि के समान आकाश में अचानक यह आवाज कहाँ और कैसे हो रही है?' उसने घबराते हए कहा-'प्रियतम! यह आवाज तो नाटयोन्मत्त की विशाखा नामक विद्याधर-कुमारियों के आगमन की है। वे व्यर्थ ही उसके लिए विवाह-सामग्री लेकर आ रही है। सच है, 'प्राणी मन में कुछ और ही सोचता है और दैव कुछ और ही घटना घटित करता है।' मेरे ख्याल से आप कुछ समय के लिए यहां से अन्यत्र चले जाइए। मैं आपके गुणों की प्रशंसा करके यह जान लूं कि विद्या धारियों के मन में उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है? उन्हें आपके प्रति अनुराग होता है या विराग? जब मैं देखूगी कि उनमें आपके प्रति अनुराग है तो लालझंडी दिखा दूंगी, उसे देखते ही आप वापस लौट आना। अगर उनमें आपके प्रति विराग होगा तो मैं सफेद झंडी बताऊँगी। जिसे देखकर आप अन्यत्र चले जाना।'
यह सुनकर ब्रह्मदत्त ने कहा-'प्रिये! तुम जरा भी मत घबराओ। क्या मैं इतना कायर हूँ कि उनसे डरकर भाग जाऊं? वे रुष्ट या तुष्ट होंगी तो मेरा क्या कर सकेगी?' पुष्पवती ने कहा-'प्रियतम! आपको उनसे भय है, यह मैं| नहीं कहती। परंतु शायद उनसे संबंधित विद्याधर आपके विरोधी बनकर व्यर्थ ही कोई विघ्न खड़ा कर दे। अतः उनकी मनोवृत्ति जान लेने में हर्ज ही क्या है? आप जरा देर के लिए दूसरी जगह एक कोने में छिपकर देखते रहें।' इस बात से सहमत होकर कुमार एक ओर छिप गया। पुष्पवती ने उन विद्याधारियों को कुमार के अनुकूल जानकर भूल से लाल के बदले सफेद झंडी हिलायी। कुमार भी उसे देखकर प्रिया पर भक्तिवश वहां से आगे चल पड़ा। साहसी मनुष्यों को किसी का भी भय नहीं होता। वहां एक सरोवर देखा। ऐरावत हस्ती जैसे मानसरोवर में प्रवेश करता है, उसी प्रकार कुमार ने भी उसमें प्रवेश किया। उसमें स्नान करके और इच्छानुसार अमृतसम जल पीकर ब्रह्मदत्त उस विकट अरण्य को पार करके शाम को एक महासरोवर के तीर पर उसी तरह पहुंचा, जैसे दिनभर आकाश में घूमकर पक्षी शाम को अपने घोसलों में आ पहुंचते हैं, सूर्य जैसे दिनभर आकाश में घूमकर शाम को समुद्र में घुस जाता है। वहां से प्रातःकाल चलकर कुमार दोपहर तक एक सरोवर के तट पर पहुंचा। वहां अच्छी तरह नहा-धोकर, पीयूष-सा मधुर जल पीकर वह उसमें से बाहर निकला। फिर वायव्य दिशा में एक किनारे खड़ी पेडों और बेलों की झाड़ियों में फूल चुनती हुई | साक्षात् वनदेवी के समान एक सुंदरी को देखा; जो मानो, वहां गुंजार करते हुए भौंरों की आवाज के जरिये पूछ रही थी'आपने सरोवर में अच्छी तरह स्नान किया?' उसे देखकर कुमार सोचने लगा-'ब्रह्माजी ने जन्म से लेकर आज तक अनेक रूप बनाने का अभ्यास किया होगा; तभी तो इस नारी में वे इतना रूप कौशल प्रकट कर सके हैं। अपनी दासी के साथ बात करती हुई मोगरे के फूल के समान उज्ज्वल कनखियों से देखती हुई, वह वहां से इस तरह चली गयी मानो कुमार के गले में वरमाला डालकर चल पड़ी हो। कुमार ने भी उसे देखा और शीघ्र ही दूसरी ओर प्रस्थान कर रहा था कि एक दासी हाथ में वस्त्र, आभूषण, तांबूल आदि लेकर वहां आयी। उसने राजकुमार को वस्त्रादि अर्पित करते हुए कहा-'आपने यहां जिसे देखा था, वह हमारी स्वामिनी है। उसने मुझे एक स्वार्थसिद्धि के बहाने आपके पास भेजा है। और मुझे यह आदेश दिया है कि मैं आपको पिताजी के मंत्री के यहां अतिथि के रूप में ले जाऊँ। सच्ची हकीकत तो स्वामिनी ही यथार्थ रूप से जानती है।'
यह सुनकर कुमार भी उस दासी के साथ नागदेव मंत्री के यहां चला गया। मंत्री भी कुमार के आते ही स्वागत के लिए खड़ा हो गया, मानो वह पहले से ही उसके गुणों से आकर्षित हो। दासी ने मंत्री से कहा-'राजकुमारी श्रीकांता ने आपके यहां रहने के लिए इस भाग्यशाली कमार को आपके पास भेजा है।' दासी यह संदेश देकर चली गयी। मंत्री
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