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ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
- योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ को बांधकर यहां ले आये।' धनुमंत्री वहां से चुपके से भागने में सफल हो गये। उनके जाने के बाद तुम्हारी माता को | दीर्घराजा ने नरक के समान चांडालों के मोहल्लों में एक घर में डाल दिया है। जैसे एक फुसी के बाद दूसरी फुसी से पीड़ा बढ़ जाती है, वैसे ही उस बात को सुनकर मेरे मन में दुःख पर दुःख बढ़ जाने से मैं चिंतातुर होकर वहां से कांपिल्यपुर की ओर गया। मैंने नकली कापालिक साधु का वेष बनाया और चांडालों के मोहल्ले में घुसा। वहां खरगोश के समान घर-घर में घुसकर अपनी माता की तलाश करने लगा। लोगों ने मुझे उस मोहल्ले में रोज फेरी लगाने का कारण पूछा तो मैंने कहा- 'मेरी मातंगी विद्या की साधना ही कुछ इसी प्रकार की है कि इसमें मुझे घर-घर प्रवेश करना |पड़ता है। इस प्रकार भ्रमण करते हुए वहां एक विश्वसनीय कोतवाल के साथ मेरी दोस्ती हो गयी। 'माया से कौनसा काम नहीं बनता?' एक दिन उस विश्वस्त कोतवाल के द्वारा मैंने माता को कहलवाया कि 'तुम्हारे पुत्र का मित्र महाव्रती कौण्डिन्य तापस आपको वंदन करता है।' मेरी माता समझ गयी। पुत्र मिलने के लिए आतुर माता ने मिलने के लिए मुझ से कहलवाया। अतः दूसरे दिन मैं स्वयं वहां गया और माता को गुटिका-सहित एक बीजोरा दिया, उसे खाते ही वह जड-सी निश्चेतन बन गयी। उसकी ऐसी हालत देखकर कोतवाल ने राजा से कहा-'देव! धनमंत्री की पत्नी मर गयी है। राजा ने अपने सेवकों को उसका अग्नि-संस्कार करने का आदेश दिया। यह सुनकर मैं भी तत्काल वहां पहुंचा। मैंने अग्नि संस्कार करने के लिए आये हुए सेवकों से कहा-भाई! इस समय तुम इसका अग्नि-संस्कार करोगे तो तुम्हारे राजा का बड़ा भारी अनिष्ट होगा।' यह सुनकर वे राज सेवक उसे ज्यों की त्यों वहां छोड़कर चले गये। तब मैंने कोतवाल से कहा-'यदि तुम सहायता करो तो मैं इस सर्व-लक्षणयुक्त शब से एक मंत्र सिद्ध कर लूं।' कोतवाल ने मेरी बात मान ली। मैं भी संध्या समय माता को शमशान से दूर ले गया। वहां पर एक जगह कपट से मैंने एक मंडलाकार यंत्र लिखकर नगर की देवियों को बलि देने के लिए कोतवाल को भेजा। इधर तो वह गया और उधर |मैंने माता को दूसरी गुटिका दी; जिससे वह होश में आकर इस प्रकार उठ खड़ी हुई, जैसे कोई नींद से जम्हाई लेते हुए उठ खड़ा होता है। मैंने उसे अपना यथार्थ परिचय दिया। सुनते ही उसकी तो हिचकियां बंध गयी। मैंने उसे ढाढस बंधाकर उसका रोना बंद कराया। फिर उसे कच्छ गांव में अपने पिताजी के मित्र देवशर्मा के यहां ले गया। उनके यहां उसे छोड़कर मैं तुम्हें ढूंढने के लिए इधर-उधर घूमता हुआ यहां पर आया हूं। मेरे अहोभाग्य से साक्षात् पुण्यराशि के समान अभी मुझे आपके दर्शन हुये। स्वामिन्! अब आप बतलाइये कि मेरे से बिछुड़ने के बाद आप कहां-कहां गये? | और कहां-कहां ठहरे? कहां क्या हाल रहा? कुमार ने भी अपनी राम कहानी सुनायी।
वहां से वे दोनों साथ-साथ जा रहे थे कि किसी ने आकर धीमे से कहा-'गांव में दीर्घराजा के सुभट तुम-सी आकृति वाला चित्र (हूलिया) बताकर पूछते हुए घूम रहे हैं कि 'क्या ऐसी आकृति वाले कोई दो आदमी यहां आये किसी ने देखे हैं?' उनकी बातें सुनकर मैं आप दोनों को देखते ही सूचित करने आया हूं।' अब आपको जैसा उचित लगे वैसा करें। यों कहकर वह चल दिया। यह सुनकर वे दोनों साथी उस जंगल में हाथी के बच्चे के समान भागते हुए एक दिन कौशांबी पहुंचे। वहां नगरी के बाहर उद्यान में उन्होंने सागरदत्त और बुद्धिल को एक लाख रुपये की शर्त पर मुर्गे लड़ाते देखा। वे मुर्गे उड़-उड़कर प्राण-नाशक हथियार की नोक के समान अपने नखों और चोंचों से परस्पर लड़ रहे थे। लड़ते-लड़ते उन दोनों में से भद्रहस्ती-सदृश उत्तमजाति के सशक्त मुर्गे को मध्यम-प्रकार के हाथी के समान बुद्धिबल के मरियल मुर्गे ने हरा दिया। यह देखकर वरधनु ने कहा-'सागर! तेरा उत्तम जाति का मुर्गा होते हुए भी क्यों हार गया? अगर तूं इसका कारण जानना चाहता है तो मैं उसका पता लगाऊँ?' सागर के सहमत हो जाने पर रधनु ने बुद्धिल के मुर्गे को गौर से देखा तो उसके पैर में यमदूती के समान लोहे की सुई लगी हुई थी। बुद्धिल भी मन ही मन समझ गया कि यह मेरे कपट को जान गया है; अतः वरधनु के कान में गुपचुप ५० हजार रुपये देने की पेशकश की। व
रधनु ने भी ब्रह्मकुमार से यह बात एकांत में कही। ब्रह्मदत्त ने चुपके से बुद्धिल के मर्गे के पैर में लगी। हुई लोहे की सुई निकाल दी। और उसे फिर सागरदत्त के मुर्गे के साथ लड़ाया। सुई के निकाल लेने से बुद्धिल का मुर्गा पहले ही मोर्चे में जरा-सी देर में हार गया। 'कपट करने वाले नीच मनुष्य की विजय हो ही कैसे सकती है?' इससे सागरदत्त प्रसन्न होकर विजय दिलाने वाले दोनों कुमारों को अपने रथ में बिठाकर अपने घर ले गया। वहां वे दोनों अपने
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