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सुलस की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ३० स्थान पर दूसरी प्रतिमा स्थापित की जाती है।' राजा ने मंत्री की बात स्वीकार की। सेडुक के स्थान पर उसके पुत्र को स्थापन्न किया। अब सेडुक घर पर ही रहने लगा। मधुमक्खियों से घिरे हुए छत्तों के समान उसके चारों ओर मक्खियाँ भिनभिनाती रहती। अतः पुत्रों ने मिलकर घर के बाहर एक झोंपड़ी बनवा दी और उसी में सेडुक को रखा। अब न तो कोई उसकी बात मानता और सुनता था और न कोई उसके कहे अनुसार काम करता था। इतना ही नहीं, कुत्ते की तरह लकड़ी के पात्र में उसे भोजन दे दिया जाता था। पुत्रवधुएँ भी उससे घृणा करती थी। भोजन देते समय मुंह फेर लेती थीं और नाक-मुंह सिकोड़ती थी। यह देखकर क्षुद्राशय सेडुक ने विचार किया-इन पुत्रों को मैंने ही तो धनवान बनाया है। लेकिन आज मेरी अवज्ञा करके इन्होंने मुझे वैसे ही छोड़ दिया है, जैसे समुद्र पार करने के बाद यात्री नौका को छोड़ देता है। इतना ही नहीं, मुझे वचन से भी संतुष्ट नहीं करते। उल्टे ये मुझे कोढ़िया, क्रोधी, असंतोषी, अयोग्य आदि अनुचित शब्द कहकर चिढ़ाते व खिजाते हैं। जिस तरह ये पुत्र मुझ से घृणा करते हैं, उसी तरह ये भी घृणापात्र बन जाय, ऐसा कोई उपाय करना चाहिए। सहसा उसे एक युक्ति सूझी और मन ही मन प्रसन्न होकर उसने ऐसा विचारकर पुत्रों को अपने पास बुलाकर कहा 'पुत्रों! अब मैं इस जीवन से ऊब गया हूं। अतः अपना कुलाचार ऐसा है कि मरने की अभिलाषा वाले व्यक्ति को उसके परिवार वाले एक मंत्रित पशु लाकर दे। अतः तुम मेरे लिये एक पशु लाकर दो। | यह सुनकर सबने इस बात का समर्थन किया और उन सब पशु सम बुद्धि वाले पुत्रों ने पिता को एक पर दिया। सेडुक प्रसन्न होता हुआ अपने अंगों से बहते हुए मवाद को हाथ से लेकर पशु के चारे में मिलाता और उसे खिलाता। मवाद मिला हुआ चारा खाने से वह पशु भी कोढ़िया हो गया। अतः सेडुक ने वह पशु बलि (वध) के लिए अपने पुत्रों को दे दिया। पिता के आशय को न समझकर उन भोलेभाले पुत्रों ने एक दिन उस पशु को मार डाला और उसका मांस खा गये। इसी बीच सेडुक अपने पुत्रों से यह कहकर कि-'मैं आत्मकल्याण के लिए तीर्थभूमि पर जाता हूं। अब मेरे लिये अरण्य ही शरण है।' ऊँचा मुंह किये कुछ सोचता हुआ-सा वह चल पड़ा। जंगल में जाते-जाते उसे बड़ी जोर से प्यास लगी। पानी की तलाश में घुमते-घूमते उसने विविध वृक्ष की घटाओं से युक्त मित्र समान एक सरोवर देखा। उस सरोवर का पानी वृक्षों से गिरे हुए पत्तों व फूल-फलों से बेस्वाद तथा मध्याह्न की तपती हुई सूर्यकिरणों से क्वाथ के समान उत्तप्त हो गया था, गर्म-गर्म ही उस जल को पिया। ज्यों-ज्यों वह उस पानी को पीता गया, त्योंत्यों उसकी प्यास और अधिक बढ़ती चली गयी। जितनी बार वह इस उष्ण जल को पीता, उतनी बार ही उसे पतली दस्त हो जाती; जिससे उसके शरीर से कृमियां निकलती थीं। इस प्रकार प्रतिदिन उस सरोवर के जल पीने और रेच के साथ कीड़े निकल जाने से सेडुक कुछ ही दिनों में रोगमुक्त हो गया। उसके सारे अंग इस प्रकार सुंदर हो उठे, जिस प्रकार वसंतऋतु में वृक्ष, अपने अंगोपांगों सहित सर्वांगसुंदर बन जाता है। निरोग होने से हर्षित होकर ब्राह्मण अपने घर की ओर वापिस चल पड़ा। जन्मभूमि में सुंदर शरीर सभी पुरुषों के लिए विशेष शृंगार रूप होता ही है।
सेडूक ने जब अपने नगर में प्रवेश किया तो नागरिक लोग कंचुकी युक्त सर्प के समान उसे रोगमुक्त और सुंदर आकृतियुक्त देखकर विस्मित हो उठे। नागरिकों ने पूछा-'विप्रवर! आपका निरोग शरीर और सुंदर आकृति देखकर मालूम होता है, आपने पुनर्जन्म पाया हो! अतः आपको निरोग और सुंदर होने का क्या कारण हुआ?' ब्राह्मण ने कहा'मैंने देवताओं की आराधना की; जिससे मैं रोग मुक्त हो गया हूँ।' इसके बाद वह अपने घर पर पहुंचा। वहां अपने पुत्रों को कोढ़िये बने देखकर हर्षित हुआ और कहने लगा-'तुमने मेरी अवज्ञा की थी, ठीक उसी का फल तुम्हें मिला है।' पुत्रों ने कहा-'पिताजी! हमने आप पर विश्वास रखा, परंतु आपने हमारे साथ शत्रु सरीखा निर्दय कार्य क्यों किया?' यह सुनकर सेडुक चुप हो गया, लड़कों ने उसे कोई आदर नहीं दिया और न अन्य लोगों ने। अतः वह तिरस्कृत और आश्रयरहित हो गया। यह सारी कथा सुनाकर भगवान् महावीर ने आगे श्रेणिक राजा से कहा-'राजन्! घूमता-घामता वह सेडुक तुम्हारे नगर में आया और तुम्हारे प्रासाद के द्वारपालों से मिला। द्वारपालों ने जब यह सुना कि मैं इस समय राजगृह नगर में आया हूं तो हर्षित होकर मेरी धर्मदेशना सुनने के लिए अपने स्थान पर उस ब्राह्मण को बिठाकर आये। इस प्रकार जीविका के द्वार के समान सेडुक को द्वारपाल का आश्रय मिला। वह द्वार पर भूखा-प्यासा बैठा था। इतने में ही द्वार पर आये हुए पक्षियों को डाली हुई बली को देखते ही भूखे भेडिये की भांति उस पर टूट पड़ा। कुष्टरोग
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