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सुलस के द्वारा कुलपरंपरागत हिंसा का त्याग
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ३० न हुई हो, लेकिन वही विघ्नशांति के बदले घोरविघ्न रूप बन जाती है। समरादित्य कथा में बताये अनुसार-यशोधर के जीव सुरेन्द्रदत्त ने विघ्नशांति के लिए सिर्फ आटे का मुर्गा बनाकर उसका वध किया था। जिसके कारण उसे वह वध जन्म-मरण की परंपरा में वृद्धि के रूप में विघ्नभूत हो गया था। इसी प्रकार 'यह तो हमारा कुल परंपरागत आचार है, या रिवाज है', इस दृष्टि से की गयी हिंसा भी कुलविनाशिनी ही होती है ॥२९।।
कलपरंपरागत हिंसा का त्याग करने वाला परुष कैसे प्रशंसनीय बन जाता है? इसे अब आगे के श्लोक द्वारा रहे हैं।।८६। अपि वंशक्रमायाता, यस्तु हिंसां परित्यजेत् । स श्रेष्ठः सुलस इव, कालसौकरिकात्मजः ॥३०॥ अर्थ :- वंशपरंपरा से प्रचलित हिंसा का भी जो त्यागकर देता है। वह कालसौकरिक (कसाई) के पुत्र सुलस
के समान श्रेष्ठ पुरुष कहलाने लगता है ॥३०॥ व्याख्या :- वंश अथवा कुल की परंपरा से चली आयी हुई हिंसा का जो त्यागकर देता है, वह कालसौकरिक (कसाई) के पुत्र सुलस की तरह श्रेष्ठ एवं प्रशंसनीय बन जाता है। सुलस सद्गति के मार्ग को भली-भांति जानता था। उसे स्वयं मरना मंजूर था, परंतु दूसरों को मारना तो दूर रहा, मन से भी वह पीड़ा नहीं पहुंचाना चाहता था।
सुलस की संप्रदायगम्य कथा इस प्रकार से हैकालसौकरिक (कसाई)-पुत्र सलस का जीवन-परिवर्तन :
उन दिनों मगधदेश में राजगृह बड़ा ऋद्धिसंपन्न नगर था। वहां भी श्रमण भगवान् महावीर के चरणकमलों का भ्रमर एवं परमभक्त श्रेणिक राजा राज्य करता था। कृष्णपिता वासुदेव के जैसे देवकी और रोहिणी रानियाँ थीं, वैसे ही | उसके शीलाभूषणसंपन्न नंदा और चेलणा नाम की दो प्रियतमाएँ विशेष प्रिय थीं। नंदारानी के कुमुद को आनंद देने वाले
चंद्र के समान विश्व का आनंददायक चंद्र एवं कुलाभूषण रूप एक पुत्र था, जिसका नाम था अभयकुमार। राजा ने उसका उत्कृष्ट बुद्धि-कौशल जानकर उसे योग्य सर्वाधिकार प्रदान कर दिये थे। वास्तव में गुण ही गौरव का पात्र बनता है। एक बार भगवान् महावीर स्वामी राजगृह में पधारें। 'जंगमकल्पवृक्ष' रूप स्वामी पधारे हैं, यह जानकर अपने को कृतार्थ मानता और हर्षित होता हुआ राजा श्रेणिक भगवान् के दर्शनार्थ पहुंचा। वहां दानव, मानव आदि से भरी हुई धर्मसभा
वसरण) में राजा अपने योग्य स्थान पर बैठ गया। जगद्गुरु महावीर पापनाशिनी धर्मदेशना देने लगे। ठीक उसी समय एक कोढ़िया, जिसके शरीर से मवाद निकलकर बह रही थी, उस समवसरण में आया और प्रभु को नमस्कार कर उनके निकट इस प्रकार बैठ गया जैसे कोई पागल कुत्ता हो और भगवान के दोनों चरणकमलों पर बेधड़क होकर अपने मवाद का लेप करने लगा, मानो चंदनरस का लेप कर रहा हो। उसे देखकर राजा श्रेणिक मन ही मन कुढ़ता हुआसा सोचने लगा-जगद्गुरु की इस प्रकार आशातना करने वाला यह पापी यहां से खड़ा होते ही मारने योग्य है। उस |समय भगवान को छींक आयी, तो कोढ़िये ने कहा-'मर जाओ!' इसके बाद श्रेणिक को छींक आयी तो उसने कहा'जीओ!' फिर अभयकुमार को छींक आयी तब उसने कहा-'तुम जीते रहो या मर जाओ।' और अंत में जब कालसौकरिक को छींक आयी तो उसने कहा-'तुम जीओ भी मत और मरो भी मत।' इस पर प्रभु के लिए 'तुम मर जाओ' ऐसे अप्रिय वचन कहने से क्रुद्ध हुए राजा ने अपने सैनिक को आज्ञा दी कि इस स्थान से खड़ा होते ही कोढ़िये को पकड़ लेना।
देशना पूर्ण होने पर कोढ़िया भगवान को नमस्कार करके खड़ा हुआ। अतः श्रेणिक के सैनिकों ने उसी प्रकार पकड़ लिया जैसे भील सूअर को घेरकर पकड़ लेते हैं। सूर्यबिम्ब के तुल्य तेजस्वी दिव्य रूपधारी कोढ़िया सब के देखते ही क्षणभर में आकाश में उड़ गया। राजसेवकों ने यह बात राजा को बतायी। अतः राजा ने विस्मित होकर भगवान से पूछा| 'भगवन्! यह कौन था जो इस प्रकार देखते ही देखते क्षणभर में गायब हो गया। तब प्रभु ने कहा-'यह एक देव है।'
श्रेणिक ने फिर पूछा-'भगवन्! जब यह देव है, तब यह कोढ़ी का रूप बनाकर क्यों आया था?' भगवान् ने उत्तर दिया-'राजन्! सुनो' वत्सदेश में कौशांबी नाम की नगरी में राजा शतानीक राज्य करता था। उस नगर में जन्म दरिद्र और महामूर्ख सेडुक नाम का ब्राह्मण रहता था। एक दिन उसकी गर्भवती पत्नी ने उससे कहा-'कुछ ही।
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