________________
ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ एक दिन भ्रमण करते-करते चित्रमुनि वहां आया। वहां किसी उद्यान में प्रासुक एवं निरवद्य स्थान में वह मुनि ठहरा हुआ था। एक दिन मुनि ने वहां रेंहट चलाते हुए किसी व्यक्ति के मुंह से वह समस्या-पूर्ति वाला आधा श्लोक सुना। सुनते ही उन्होंने शेष पदों का आधा श्लोक यों बोला 'एषा नो षष्ठिकाजातिरन्योऽन्याभ्यां वियुक्तयोः।' रेंहट चलाने वाले ने वह आधा श्लोक याद कर लिया और सीधे राजा के पास जाकर आधा श्लोक उन्हें सुनाया। उसे श्रवण कर राजा ने पूछा| 'इस पद को जोड़ने वाला कौन-सा कवि है?' उसने मुनि का नाम बताया। राजा ने उसे बहुत-सा इनाम देकर विदा किया। अब राजा उस उद्यान में उगे हुए कल्पवृक्ष-स्वरूप मुनि के दर्शन करने गया। हर्षाश्रुपूर्ण नेत्रों से राजा ने मुनि को देखते ही वंदन किया और पूर्वजन्मों की तरह स्नेह विभोर होकर उक्त मुनि के पास बैठा। कृपारस के समुद्र मुनि ने धर्मलाभ के रूप में आशीर्वाद देकर राजा के लिए हितकर धर्मोपदेश दिया
'राजन्! इस असार संसार में कुछ भी सार नहीं है। यदि कोई सारभूत वस्तु है तो कीचड़ में कमल की तरह संसार रूपी कीचड़ में कमल समान केवल धर्म ही है। शरीर, यौवन, लक्ष्मी, स्वामित्व, मित्र और बंधुवर्ग ये सभी हवा से | उड़ती हुई ध्वजा के समान चंचल है। जैसे चक्रवर्ती षट्खंड रूप पृथ्वी पर दिग्विजय करने के लिए तमाम बाह्य शत्रुओं
को जीतता है, वैसे ही मोक्षसाधना के लिए अंतरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो, बाह्य अभ्यंतर शत्रुओं का विवेक कर महाशत्रुओं के समान आभ्यंतर शत्रुओं का त्याग करो। राजहंस जैसे क्षीर और नीर का पृथक् करण (विवेक) करके दूध को ही ग्रहण करता है, वैसे ही तुम सारासार का विवेक करके यतिधर्म को ग्रहण करो। ब्रह्मदत्त ने कहा-'बंधो! आज बड़े ही भाग्य से आपके दर्शन हए हैं। तो लो. यह सारा राज्य में तम्हें सौंपता हैं। अपनी इच्छानुसार इसका उपभोग करो। तपस्या का फल मिला है; तो उसका उपभोग करो। तप का फल जब प्राप्त हो गया है, तब और तप किसलिए | किया जाय? प्रयोजन की सिद्धि अपने आप होने पर कौन दूसरा उद्यम करता है? मुनि ने कहा- 'मुझे भी कुबेर के समान
संपतियाँ मिली थी। परंतु भवभ्रमण के भय से मैंने उसका तृणवत् त्यागकर दिया है। सौधर्म देवलोक से पुण्यक्षय होने | पर तुम पृथ्वीतल पर आये हो। अतः हे राजन्! अब ऐसा न हो कि यहां से हीनपुण्य वाली अधोगति में तुम्हें जाना | पड़े। आर्यदेश में श्रेष्ठकुल में और मोक्ष देने वाली मानवता प्राप्त करके भी तुम इस जन्म में भोगों की साधना कर रहे
हो, जो कि अमृत से मलद्वार की शुद्धि करने के समान है। हमने स्वर्ग से च्यव कर हीनपुण्य वाली विविध कुयोनियों में परिभ्रमण किया है, उसे याद करके अब भी तुम नादान बालक की तरह क्यों सांसारिक भूल-भुलैया में आसक्त हो रहे हो?' इस तरह चित्रमुनि ने चक्रवर्ती को बहुत प्रतिबोध दिया, फिर भी वह समझ न सका। सच है, जिसने भोगों का निदान किया हो, उसे बोधिबीज की प्राप्ति कैसे होगी? अंततोगत्वा मुनि ने जब यह जान लिया कि यह राजा हर्गिज नहीं समझेगा; तब उन्होंने वहां से अन्यत्र विहार किया। कालदष्टि जाति के सर्प के काटने पर गारुडिक का क्या वश
चल सकता है? मुनि ने तप-संयम की आराधना करके अपने घातिकर्मों का क्षय कर उत्तम केवलज्ञान प्राप्त किया। तथा | चार अघाती कर्मों का भी क्षय करके चित्र मुनि ने मुक्ति प्राप्त की।
संसार के विषयसुखानुभव में लीन ब्रह्मदत्त भी एक-एक करके सात सौ वर्ष बिता चुका था। इसी दौरान एक पर्वपरिचित ब्राह्मण आया। उसने चक्रवर्ती से कहा-'राजन! आप जो भोजन करते है. वह मुझे भी खाने को दीजिए।' ब्रह्मदत्त ने कहा कि-'मेरे भोजन को पचाने की तुम में शक्ति नहीं है। यह भोजन बहुत देर में हजम होता है और बहुत ही उन्मादक है।' तब उसने कहा-'मालुम होता है, आप एक ब्राह्मण को अन्नदान देने में भी कृपण है। धिक्कार हो | आपको।' तब चक्रवर्ती ने परिवार सहित उस ब्राह्मण को अपना भोजन करवाया। उसके प्रभाव से रात को ब्राह्मण के मन में सहस्रशाखी कामोन्मादवृक्ष उत्कृष्ट रूप में प्रकट हुआ। जिसके कारण वह रात भर माता, बहन, पुत्री, पुत्रवधू आदि का भी भेद न करके अंदर ही अंदर पशु के समान कामक्रीड़ा में प्रवृत्त रहा। रात बीतते ही ब्राह्मण और उसके घर के लोग शर्म के मारे एक दूसरे को मुंह नहीं बता सके। ब्राह्मण ने यह विचार किया कि 'दुष्ट राजा ने मुझे और मेरे | परिवार को विडंबना में डाल दिया।' अतः क्रुद्ध होकर वह नगर से बाहर चला गया। जंगल में घूमते-घूमते एक जगह | उसने दूर से ही गुलेल में कंकड़ लगाकर फेंकते हुए और पीपल के पत्तों को छेदते हुए एक गड़रिये को देखा। तुरंत उसे सूझा-'बस, इस दुष्ट राजा से वैर का बदला लेने का यही उपाय ठीक रहेगा।' ब्राह्मण ने उसे बहुत कीमती सामान
110