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ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७
के बीच में मैंने अपने आपको छिपा लिया। चोरों के चले जाने के बाद मैं वृक्ष के खोखले में इस प्रकार छिप गया; जैसे | पानी में अतिपक्षी छिप जाता है। जब चारों ओर सन्नाटा छा गया, तब इधर-उधर देखते हुए बड़ी मुश्किल से मैं गांव में पहुंचा। गांव के मुखिया से आपके समाचार जानकर खोजते खोजते मैं यहां तक आया हूँ। मोर को जैसे मेघ देखने पर हर्ष होता है, वैसे ही मुझे आपको देखकर अत्यंत हर्ष हुआ है। ब्रह्मदत्त ने अत्यंत प्रसन्नता प्रकट करते हुए उससे | कहा- 'अब हम कब पुरुषार्थहीन होकर कायर बने बैठे रहेंगे?"
उसी दौरान कामदेव को आधिपत्य दिलाने वाला, मद्य के समान जवानों को मदोन्मत्त बनाने वाला वसंतोत्सव | आ गया। तब यमराजा का सहोदर - सा राजा एक मतवाला हाथी खंभा तोड़कर शृंखलाबंधनमुक्त होकर सब लोगों को | त्रास देता हुआ बाहर निकला । नितंबभार से लड़खड़ाती हुई एक युवती राजमार्ग पर जा रही थी, कि उस हाथी ने | कमलिनी की तरह उसे सूंड में पकड़कर उठायी। लाचार बनी हुई, आंसू बहाती वह कन्या दीनतापूर्वक करुणक्रंदन करने लगी- 'अरे मातंग, ओ मातंग ! ( अर्थात् तेरा मातंग - (चांडाल) नाम सार्थक है) एक अबला को पकड़ते हुए तुझे शर्म नहीं आती?' यह सुनते ही हाथी के चंगुल से छुड़ाने के लिए कुमार उसके सामने आया । कुमार एकदम उछलकर सीढ़ी पर पैर रखने के समान उसके दांत पर पैर रखकर आसानी से हाथी की पीठ पर चढ़ गया। और वहां आसन | जमाकर बैठ गया । जैसे योगी योगबल से इंद्रियों और मन को वश में कर लेता है, वैसे ही कुमार ने वाणी और पैर के | दबाव के अंकुश से हाथी को वश में कर लिया। वहां खड़े हुए दर्शक लोग सहसा बोल उठे - 'शाबाश! शाबाश! वाह ! | वाह ! बहुत अच्छा किया।' इस प्रकार सब लोग कुमार की जय-जयकार करने लगे । कुमार ने भी हाथी को खंभे के | पास ले जाकर हथिनी के समान बांध दिया। जब राजा के कानों में यह बात पहुंची तो वह तुरंत घटनास्थल पर आया और कुमार को विस्मित नेत्रों से देखकर कहने लगा- 'इसकी आकृति और पराक्रम से कौन आश्चर्यचकित नहीं होता? यह गुप्तवेश में पराक्रमी पुरुष कौन है? कहां से आया? अथवा यह कोई सूर्य या इंद्र है?' यह सुनकर रत्नवती ने राजा को सारा वृत्तांत सुनाया । कुमार के गुणों से आकृष्ट होकर भाग्यशाली राजा ने उत्सवपूर्वक ब्रह्मदत्त को उसी तरह अपनी | कन्याएँ दी; जिस तरह दक्ष राजा ने चंद्र को दी थी। राजकन्याओं के साथ विवाह के बाद कुमार वहीं सुखपूर्वक रहने | लगा। एक दिन वस्त्र का एक सिरा घूमाती हुई एक बुढ़िया ने आकर कुमार से कहा - 'इस नगर में पृथ्वी पर दूसरे धनकुबेर के समान धनाढ्य वैश्रमण नामक सेठ रहता है। समुद्रोत्पन्न लक्ष्मी की तरह उसके श्रीमती नाम की एक पुत्री है। राहु के पंजे से चंद्रकला की तरह आपने जिस दिन उसे हाथी के पंजे से छुड़ायी है, उसी दिन से उसने आपको | मन से पति रूप में स्वीकार कर लिया है। तभी से वह आपकी याद में बेचैन और दुबली हो रही है। आपको जैसे उसने हृदय में ग्रहण किया है, उसी तरह आप उसे हाथ से ग्रहण करें।' बुढ़िया के बहुत अनुरोध करने पर कुमार ने अपनी | स्वीकृति दे दी। तत्पश्चात् खूब धूमधाम से गाजे-बाजे व विविध मंगलों के साथ कुमार ने श्रीमती के साथ शादी की। साथ ही उसी समय सुबुद्धि मंत्री की नंदा नाम की कन्या से वरधनु ने शादी की। इस तरह अपने पराक्रम से देश-विदेश में ख्याति प्राप्त करते हुए और परोपकार में उद्यम करते हुए वे दोनों आगे से आगे बढ़ते जा रहे थे।
ब्रह्मदत्तको वाराणसी की ओर आते हुए सुनकर वहां के राजा कटक ब्रह्मा के समान उसकी महिमा जानकर | अगवानी के लिए उसके सामने गया और उत्सवसहित उसे अपने यहां ले आया । ब्रह्मदत्त के गुणों से आकर्षित होकर | राजा ने उसे कटकवती नाम की अपनी पुत्री दी और दहेज में साक्षात् जयलक्ष्मीसदृश चतुरंगिणी सेना दी। इस तरह चंपानगरी के करेणुदत्त, धनुमंत्री और भागदत्त आदि राजा उसका आगमान सुनकर स्वागतार्थ संमुख आये । भरतचक्रवर्ती ने जैसे सुषेण को सेनापति बनाया था, वैसे ही ब्रह्मदत्त ने वरधनु को सेनाधिपति बनाकर दीर्घराजा को | परलोक का अतिथि बनाने के लिए उसके साथ युद्ध के लिए कूच किया। इसी दौरान दीर्घराजा के एक दूत ने कटकराजा के पास आकर कहा - 'दीर्घराजा के साथ बाल्य काल से बंधी हुई मित्रता छोड़ना आपके लिए उचित नहीं है।' इस पर | कटक राजा ने कहा- ब्रह्मराजा सहित हम पांचों सगे भाईयों की तरह मित्र थे । ब्रह्मराजा के मरते समय पुत्र और राज्य की रक्षा करने की जिम्मेवारी दीर्घराजा को सौंपी गयी थी। लेकिन उन्होंने न तो ब्रह्मराजा के पुत्र 'के भविष्य का दीर्घदृष्टि | से विचार किया और न उसके राज्य का ही । प्रत्युतर भ्रष्ट बनकर इतने अधिक पापों का आचरण किया है, जितने एक
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