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ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
__ योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ और मंत्रीपुत्र दोनों आरूढ़ हुए, मानो दो सूर्यपुत्र हों। दोनों घोड़े पंचमधारगति से इतनी तेजी से दौड़ रहे थे कि उनके लिए पचास योजन एक कोस के समान था। कितु अफसोस! वे दोनों घोड़े बीच में ही थककर मर गये। अतः वहां से आगे वे दोनों पैदल चलकर अपने प्राणों की रक्षा करते हुए मुश्किल से कोष्ठकगांव के निकट पहुंचे।
तभी ब्रह्मदत्त ने अपने मित्र वर धनु से कहा-'मित्र! क्या अब भी परस्पर प्रतिस्पर्धा करनी है? मुझे तो कड़ाके की भूख और तीव्र प्यास लगी है। इनके मारे मेरे प्राण निकले जा रहे है।' मंत्रीपुत्र ने राजकुमार के कान में कुछ कहा और फिर-'क्षणभर तुम यहां रुक जाओ।' यों कहकर वह आगे चल पड़ा। राजकुमार का मस्तक मुंडाने के हेतु मंत्रीपुत्र गांव से एक नायी को बला लाया। मंत्रीपत्र के कहने से ब्रह्मदत्त ने सिर्फ एक चोटी रखकर बाकी के सारे बाल कटव |दिये। फिर उसने भगवे रंग के पवित्र वस्त्र धारण कर लिये। उस समय वह ऐसा लगता था मानो संध्याकालीन रंगबिरंगे
बादलों में सूर्य छिपा हो। मंत्रीपुत्र वरधनु ने उसके गले में एक ब्रह्मसूत्र डाल दिया। अब तो वह ब्रह्मराजा का पुत्र यथार्थ | रूप में अपने ब्रह्मपुत्र नाम को सार्थक कर रहा था। वर्षाऋतु में मेघ से जैसे सूर्य ढक जाता है, वैसे ही मंत्रीपुत्र ने ब्रह्मदत्त
के श्रीवत्सयुक्त वक्षःस्थल को उत्तरीय पट से ढक दिया। इस तरह सूत्रधार के समान ब्रह्मपुत्र का वेश बदलाकर स्वयं मंत्रीपुत्र ने भी वैसा ही वेश बदला। यों पूर्णिमा के चंद्रमा और सूर्य के समान दोनों मित्रों ने गाँव में प्रवेश किया। वहां किसी ब्राह्मण ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रण दिया। उसने राजा के अनुरूप भक्ति से उन्हें भोजन कराया। 'प्रायः मुख के तेज के अनुसार सत्कार हुआ करता है।' भोजनोपरांत ब्राह्मणपत्नी श्वेतवस्त्रयुगल से सुसज्जित कर अप्सरा के समान रूपवती एक कन्या को लेकर उपस्थित हुई; जो कुमार के मस्तक पर अक्षत डालने लगी। यह देखकर वरधनु ने ब्राह्मण से कहा 'विचारमूढ़! सांड के गले में गाय के समान कलाहीन इस बटुक के गले में इस लड़की को क्यों बांध रही हो?' इसके उत्तर में विप्रवर ने कहा-'यह गुणों से मनोहर बंधुमती नाम की मेरी कन्या है। मुझे इसके योग्य वर इसके सिवाय और कोई नजर नहीं आता। निमित्तज्ञों ने मुझे बताया था कि इसका पति छह खंड पृथ्वी का पालक चक्रवर्ती होगा। और यह वही है। उन्होंने मुझे यह भी कहा था कि उसका श्रीवत्सचिह्न पट से ढका होगा और वह तेरे घर पर ही भोजन करेगा। उसे ही यह कन्या दे देना।' उसी समय ब्राह्मण ने ब्रह्मदत्त के साथ उस कन्या का विवाह कर दिया। भाग्यशाली | भोगियों को बिना किसी प्रकार का चिंतन किये अनायास ही प्रचुर भोग मिल जाते हैं।' ब्रह्मदत्त उस रात को वहीं रहकर
और बंधुमती को आश्वासन देकर अन्यत्र चल पड़ा। जिसके पीछे शत्रु लगे हों, वह एक स्थान पर डेरा जमाकर कैसे रह सकता है? वहां से चलकर वे दोनों सुबह-सुबह एक गांव में पहुंचे, जहां उन्होंने सुना कि दीर्घराजा ने ब्रह्मदत्त को पकड़ने के लिए सभी मार्गों पर चौकी-पहरे बिठा दिये हैं। अतः वे टेढ़ेमेढ़े मार्ग से चलने लगे। दौड़ते-भागते वे दीर्घराजा के भयंकर सैनिकों के सरीखे हिंस्र जानवरों से भरे घोर जंगल में आये। वहां प्यासे कुमार को एक वटवृक्ष के नीचे छोड़कर वरधनु मन के समान फुर्ती से जल लेने गया। वहां पर पहचान लिया गया कि 'यह वरधनु है, अतः सूअर के बच्चे को जैसे कुत्ते घेर लेते है, वैसे ही दीर्घराजा के क्रूद्ध सैनिकों ने उसे घेर लिया। फिर वे जोर-जोर से चिल्लाने लगे-'अरे। पकडो. पकडो इसे! मार डालो. मार डालो।' यों भयंकर रूप से बोलते हए उन पकड़कर बांध दिया। फिर उसे ब्रह्मदत्त के विषय में पछा। वरधन ने ब्रह्मदत्त को भाग जाने का इशारा ब्रह्मदत्तकमार वहां से नौ-दो-ग्यारह हो गया। 'पराक्रम की परीक्षा समय आने पर ही होती है।' कमार भी व एक के बाद दूसरी बड़ी अटवी को तेजी से पार करता हुआ बिना थके बेतहाशा मुट्ठी बांधे आगे बढ़ा जा रहा था। इसी तरह वह एक आश्रम में पहुंचा। वहां उसने बेस्वाद एवं अरुचिकर फल खाये। वहां से चलकर तीसरे दिन उसने एक तापस को देखा! उससे पूछा-भगवन्! आपका आश्रम कहां है?' तापस, कुमार को अपने आश्रम में ले गया। क्योंकि 'तापसों को अतिथि प्रिय होते हैं। कुमार ने आश्रम के कुलपति को देखते ही पितातुल्य मानकर उन्हें हर्ष से नमस्कार किया। अज्ञात वस्तु के लिए अंतःकरण ही प्रमाण माना जाता है।' कुलपति ने उससे पूछा-'वत्स! मरुभूमि में कल्पवृक्ष के समान तम संदर आकति वाले परुष यहां कैसे चले आये?' ब्रह्मपत्र ने महात्मा से इति तक अपना सारा वृत्तांत कह सुनाया। क्योंकि प्रायः ऐसे पुरुषों से बात छिपायी नहीं जाती। सुनते ही हर्षित होकर कुलपति ने गद्गद स्वर से कहा-'वत्स! मैं तुम्हारे पिता का छोटा भाई ही हूँ। हम दोनों शरीर से भिन्न थे, परंतु हृदय
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