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ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ एक ओर से आम्रवन सींचने और दूसरी ओर से, पितृ तर्पण करने सरीखा अटपटा-सा लगता है। अथवा यों करें, कुमार का विवाह कर दिया जाय और वासगृह के बहाने इसके लिए ऐसा लाक्षागृह तैयार करवाया जाय, जिसमें गुप्त रूप से प्रवेश करने और निकलने के दरवाजे न हों। विवाह हो जाने पर राजकुमार को पत्नी के साथ उसी लाक्षागृह में प्रवेश कराया जाय। रात में वे दोनों सो जाएँ, तब आग लगा दी जाय; ताकि अंदर ही अंदर जलकर मर जायेंगे। न हमारी बदनामी होगी और न हमारे लिये फिर कोई खतरा ही रहेगा।' इस प्रकार दोनों ने गुप्तमंत्रणा की। दूसरे ही दिन राजकुमार की सगाई पुष्पचूल राजा की कन्या के साथ तय कर दी गयी और जोर-शोर से विवाह की तमाम तैयारियाँ होने लगीं।
इधर धनुमंत्री ने इन दोनों की बदनीयत जानकर दीर्घराजा से हाथ जोड़कर विनती की, 'राजन्! मेरा पुत्र वरधनु सब कलाओं में पारंगत और नीतिकुशल हो गया है। अतः वही जवान बैल के समान आपकी आज्ञा रूपी रथधुरा को उठाने में समर्थ है। मैं तो बूढ़े बैल के समान कहीं आने-जाने एवं राजाज्ञा के भार को उठाने में असमर्थ हूँ। यदि आपकी अनमति हो तो मैं किसी शांत स्थल पर जाकर अंतिम समय में धर्मानष्ठान करूँ।' यह सनकर दीर्घराजा को ऐसी आशंका हुई कि यह मायावी कहीं अन्यत्र जाकर कुछ अनर्थ करेगा; या हमारा भंडाफोड़ करेगा।' दीर्घराजा ने कपटभरे शब्दों में धनुमंत्री से कहा-'अजी! बुद्धिनिधान प्रधानमंत्रीजी! जैसे चंद्र के बिना रात शोभा नहीं देती; वैसे ही आपके बिना यह राज्य शोभा नहीं देता। इसलिए आप अब अन्यत्र कहीं भी न जाइए। यहीं दानशाला बनाकर धर्म कीजिए। दूर जाने की क्या आवश्यकता है? सुंदर वृक्षों से जैसे बाग शोभायमान होता है, वैसे ही आपसे यह राज्य शोभायमान रहेगा।' इस पर बुद्धिशाली धनुमंत्री ने भागीरथी नदी के तट पर धर्म का महाछत्र-सा एक पवित्र दानमंडप बनाया। वहीं दानशाला बनाकर गंगा के प्रवाह के समान दान का अखंडप्रवाह जारी किया। इसमें पथिकों को भोजनपानी आदि दिया जाता था। साथ ही धनुमंत्री ने दान, सम्मान और उपकार से उपकृत और विश्वस्त बनाये हुए पुरुषों से दानशाला से लेकर नवनिर्मित लाक्षागृह तक दो कोस लंबी सुरंग खुदवायी। उधर उसने मैत्रीवृक्ष को सींचने के लिए जल के सदृश एक गुप्त लेख से ही वहां दीर्घ द्वारा हो रहे षड्यंत्र का सारा वृत्तांत पुष्पचूल को अवगत कराया। बुद्धिशाली पुष्पचूल भी यह बात सच्ची जानकर अपनी पुत्री के बदले हंसनी के स्थान में बगुली की तरह एक दासीपुत्री को रत्नमणि-जटित आभूषणों से सुसज्जित करके भेजा। उस दासीपुत्री ने पुष्पचूल की पुत्री के रूप में नगर में प्रवेश किया। सच है, भोलेभोले लोग पीतल को देखकर उसे सोना समझ लेते हैं। मंगलमय मधुरगीतों और वाद्यों से आकाशतल गूंज उठा। शहनाइयां बज उठी। बहुत ही धूमधाम से हर्षपूर्वक उस कन्या के साथ ब्रह्मदत्त का विवाह हो गया। अन्य सभी परिवार को विदा करके चूलनी ने नववधू-सहित कुमार को रात्रि के प्रारंभ होते ही लाक्षागृह में भेज दिया। अन्य परिवार-सहित नववधू, कुमार और उसकी छाया के समान वरधनु साथ-साथ वहां पर आये। ब्रह्मदत्तकुमार को मंत्रीपुत्र के साथ बातें करते-करते आधीरात बीत चुकी। 'महात्माओं की आंखों में ऐसे समय नींद कहाँ?' चूलनी ने विश्वस्त सेवकों को लाक्षागृह जलाने की आज्ञा दी। सेवकों ने उस लाख के बने महल में आग लगा दी। आग लगते ही धू-धू करके कुछ ही क्षणों में वासगृह में अग्नि-ज्वालाएँ फैल गयी। धीरे-धीरे उसका काला धुंआ चारों ओर से सारे आकाशमंडल में इस तरह फैल गया, मानो चूलनी के चिरकालीन दुष्कर्म की अपकीर्ति फैल रही हो। आज सप्तजिह्वा वाली भूखी अग्नि अपनी लपलपाती हुई ज्वालाओं से करोड़ों जिह्वा वाली सर्वभक्षिणी बन गयी। जब ब्रह्मदत्त ने मंत्रीपुत्र से पुछा- 'यह क्या है?' तो इसके उत्तर में चूलनी के दुष्ट आचरणों का सारा कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया। और अंत में इससे बचने का उपाय बताते हुए कहा-'हाथी की सूंड से सुंदरी को बचाकर निकालने की तरह आपको यहां से बाहर निकालने के लिए दानशाला तक एक सुरंग मेरे पिताजी ने बनवायी है। अतः यहीं पर जोर से लात मारकर इसका दरवाजा खोलो और योगी जैसे योगबल से छिद्र में प्रवेश कर जाता है, उसी प्रकार सुरंग में प्रवेश करो।' मिट्टी के सकोरे के-से बनाये हुए संपुट-वाद्ययंत्रों के समान दरवाजे पर जोर से कुमार के पैर मारते ही सूरंग का दरवाजा झनझनाकर खूल गया। अपने मित्र के साथ ब्रह्मदत्त कुमार सुरंग के रास्ते से वैसे ही निकल गया, जैसे रत्न के छेद में से धागा निकल जाता है। सुरंग पार करते ही बाहर धनुमंत्री द्वारा जीन कसे हुए सुसज्जित दो घोड़े तैयार खड़े थे। उन पर राजकुमार
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