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ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
यागशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लाक २७ भविष्य में और कोई इस तरह साधु को परेशान न करे, इस शुद्धबुद्धि से राजा ने अपराधी मंत्री को नगर में सर्वत्र घुमाया। अंत में दोनों मुनियों के चरणों में मणिमय मुकुटसहित मस्तक झुकाकर चक्रवर्ती ने वंदन किया उस समय वे दोनों मुनिचरण ऐसे लगते थे, मानो राजा मस्तकस्थ मुकुटमणि से पृथ्वी को जलमय बना रहा हो। बांये हाथ से मुखवस्त्रिका से ढके मुंह से मुनियों ने दाहिना हाथ ऊंचा करके राजा को धर्मलाभ रूपी आशीर्वाद देकर उसकी गुणग्राहिता की प्रशंसा
मा ने नम्रतापूर्वक निवेदन किया-'मुनिवर! आपका जो अपराधी है, उसे अपने कृत अपराध (दुष्कर्म) का फल मिलना ही चाहिए।' यों कहकर सम्राट सनत्कुमार ने नमचि की ओर इशारा किया। मनिवरों द्वारा क्षमा करने का निर्देश हआ। अतः वध करने योग्य होने पर भी गरु-आज्ञा मानकर राजा ने उसे छोड़ दिया। सर्प गरुड के पास नहीं टिकता, उसी प्रकार सनत्कुमार और मुनि से अलग होकर दुष्कर्म चांडाल मृतवत् जीवन यापन करने वाले नमुचि को नगर और देश से निष्कासित कर दिया।
सनत्कुमार चक्रवर्ती की मुख्य पटरानी सुनंदा भावभक्ति से प्रेरित होकर अपनी ६४ हजार सौतों को साथ लेकर दोनों मुनिवरों को वंदन करने गयी। संभूति मुनि को वंदन करते समय वह श्रेष्ठ नारी उनके चरणकमलों से अपने बालों को स्पर्श कराती हुई-सी उनके चरणों में झुकी, उस समय ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह पृथ्वी को चंद्रमयी बना रही हो। उस स्त्रीरत्न के सुकोमल बालों का स्पर्श होते ही संभूतिमुनि को रोमांच हो उठा। सच है, 'कामदेव सदा छिद्र ढूंढता रहता है।' जब पटरानी ने उनकी आज्ञा लेकर, अंतःपुर-सहित जाने की इच्छा प्रकट की, तब राग से पराजित संभूतिमुनि ने मन ही मन इस प्रकार का निदान (दुःसंकल्प) किया-यदि मेरे दुष्करतप का कोई फल प्राप्त हो तो यही हो कि आगामी जन्म में मैं ऐसी स्त्रीरत्न का पति बनूं। उस समय चित्रमुनि ने उन्हें रोकते हुए कहा-'भाई! मोक्षफलदायक तप से तुम ऐसे निष्कृष्ट फल की इच्छा क्यों करते हो? मस्तक में धारण करने योग्य रत्न को पादपीठ में क्यों लगा रहे हो? मोहवश किये हुए निदान (नियाणे) का अब भी त्यागकर दो। तुम जैसे महामुनि के द्वारा ऐसा विचार करना उचित प्रतीत नहीं होता। इसी समय इसके लिए 'मिच्छा मि दुक्कडं' (मेरा यह दुष्कृत मिथ्या हो) कह दो। इस प्रकार चित्रमुनि के रोकने पर भी संभूतिमुनि ने नियाणे का त्याग नहीं किया। सचमुच, विषयेच्छा अतिबलवती होती है।' अनशन की भली-भांति विधिपूर्वक आराधना करके दोनों मुनि आयुष्य पूर्ण कर सौधर्म नामक सुंदर विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए।
चित्र के जीव ने प्रथम देवलोक से च्यव कर पुरिमताल नामक नगर में एक सेठ के यहां पुत्र रूप में जन्म लिया। संभूति का जीव भी देवलोक से च्यवकर कांपिल्यनगर में ब्रह्मराजा की भार्या चुलनीदेवी की कुक्षि में आया। माता ने चौदह महास्वप्न देखे। शुभतर वैभवसूचक भविष्य जानकर चूलनी रानी ने उसी तरह पुत्र को जन्म दिया, जैसे पूर्वदिशा सूर्य को जन्म देती है। आनंद से ब्रह्म में मग्न ब्रह्मराजा ने पुत्र का नाम ब्रह्मांड में प्रसिद्ध ब्रह्मदत्त रखा। जगत् के नेत्रों को आनंद देता हुआ एवं अनेक कलाओं को ग्रहण करता हुआ निर्मलचंद्र के समान वह दिनोंदिन बढ़ने लगा। ब्रह्मा के चार मुख के समान ब्रह्मराजा के चार प्रिय मित्र थे, उनमें से एक काशी देश का राजा कटक था, दूसरा हस्तिनापुर का राजा कणेरदत्त था, तीसरा कौशल का राजा दीर्घ और चौथा चंपा का राजा पुष्पचूलक था। ये पांचों मित्रराजा एक दूसरे के स्नेह-वश एक-एक वर्ष तक बारी-बारी से एक-एक राजा के नगर में नंदनवन और कल्पवृक्ष की तरह साथसाथ रहते थे। एक बार ब्रह्म राजा के नगर में पांचों राजाओं के एकत्रित रहने की बारी आयी। इस कारण शेष चारों राजा वहां आये हुए थे। वे सभी वहां मस्ती से क्रीड़ा करते हुए अपना अधिकांश समय व्यतीत कर चुके थे परंतु इधर जब ब्रह्मदत्त बारह वर्ष का हुआ तभी अचानक ब्रह्मराजा के मस्तक में अपार वेदना पैदा हो पड़ी और उसी से पीड़ित होकर वह मर गया। ब्रह्मराजा की मरणोत्तर क्रिया के बाद मूर्त उपाय के समान कटक आदि चारो राजाओं ने मिलकर ठोस और आवश्यक मंत्रणा की कि 'ब्रह्मदत्त अभी बालक है। जब तक वह वयस्क न हो जाय, तब तक हममें से किसी एक को यहां पहरेदार की तरह राज्यरक्षा के लिए रहना चाहिए।' मित्र-राजाओं को यह बात जच गयी और राज्य की रक्षा के लिए दीर्घराजा को वहां पर नियुक्त किया। शेष तीनों मित्र राजा अपने-अपने स्थान लौट गये। जैसे खेत को अरक्षित देखकर बैल (सांढ) खेत में घुस जाता है और सभी चर जाता है। उसी प्रकार तुच्छबुद्धिवाला दीर्घ भी राज्यलक्ष्मी को
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