________________
ब्रह्मदत्त चक्री की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ मानसिक सभी दुःखों से मुक्त कर सकेगा।' इस प्रकार उपदेशामृत के पान से उन दोनों निर्मलहृदय युवकों ने उक्त मुनिवर के पास साधुधर्म अंगीकार किया।
___ मुनि बनकर शास्त्रों का गंभीर अध्ययन कर के वे क्रमशः गीतार्थ हुए। 'चतुरपुरुष जिस बात को आदर पूर्वक अपना लेते हैं, उससे क्या नहीं प्राप्त कर सकते।' षष्ठ-अष्ठम, (बेला-तेला) आदि अत्यंत कठोर तपस्याएँ करके उन्होंने पूर्वकर्मों को क्षीण करने के साथ-साथ शरीर को भी कृश कर डाला। एक गाँव से दूसरे गाँव और एक नगर से दूसरे नगर में विचरण करते हुए एक बार वे दोनों हस्तिनापुर में पधारें। वहां वे दोनों रुचिर नाम के उद्यान में निवास कर दुष्कर तप की आराधना करने लगे। 'शांतचित्त व्यक्ति के लिए भोगभूमि भी तपोभूमि बन जाती है। एक दिन संभूतिमुनि मासक्षपण (मासिक तप) के पारणे हेतु भिक्षाटन करते हुए राजमार्ग से होकर जा रहे थे, कि अचानक नमुचिमंत्री ने उन्हें देखा। और देखते ही पहचान कर सोचा-'यह तो वही मातंगपुत्र है। शायद किसी के सामने मेरी पोल न खोल दे। 'पापी हमेशा शंकाशील होता है।' यह मेरी गुप्त बात यहां किसी के सामने प्रकट न कर दे, उससे पहले ही मैं इसे नगर से बाहर निकाल दूं। यों विचार करके मंत्री ने एक सैनिक को चुपचाप बुलाकर यह कार्य सौंपा। जीवनदान देने वाले अपने पूर्व उपकारी पर भी दुष्ट नमुचि कहर बरसाने लगा। सच है. दुर्जन पर किया गया उपकार सर्प को दूध पिलाने के समान ही है।' अनाज के दानों पर जैसे डंडे पड़ते जाते हैं, वैसे संभूति मुनि पर तड़ातड़ डंडे पड़ने लगे। अतः मुनि भिक्षा लिये बिना ही उस स्थान से बहुत दूर आगे निकल गये। यद्यपि वे नगर के बाहर निकल गये। फिर भी पीटने वाले उन्हें पीटते ही रहे। मनि जब आश्वस्त होकर एक जगह बैठे तो उनके मंह से बादल के रंग का-सा धुंआ निकला, जो चारों और फैलता हुआ ऐसा लगता था, मानो असमय में ही आकाश में बादल छाये हों। धीरे-धीरे धुंए ने आकाश की ओर तेजी से आगे बढ़ते हुए तेजोलेश्या का रूप ले लिया। अब वह ऐसा मालूम होता था मानो विद्युन्मण्डल से ज्वालाजाल निकल रहा। भयभीत और कुतूहलप्रिय नागरिक, विष्णुकुमार से भी अधिक तेजोलेश्याधारी मुनि संभूति को प्रसन्न करने के लिए दल के दल वहां पर आने लगे।
राजा सनत्कुमार भी वहां पर आया। क्योंकि समझदार व्यक्ति जहां से अग्नि प्रकट होती है, वहीं से उसे बुझाने का प्रयत्न करता है। राजा ने मुनि को नमस्कार कर कहा-'भगवन्! क्या ऐसा करना आपके लिए उचित है? सूर्यकिरणों से तपे हुए होने पर भी चंद्रकांतमणि से कभी आग पैदा नहीं होती। इन सभी ने आपका अपराध किया है। इससे आपको क्रोध उत्पन्न हुआ है। क्षीर-समुद्र का मंथन करते समय क्या काल-कूट विष उसके अंदर से प्राप्त नहीं होता। सज्जनपुरुषों का क्रोध भी दुर्जन के स्नेह के समान नहीं होता। कदाचित् हो भी जाय, तो भी चिरकाल तक नहीं टिकता। यदि चिरकाल तक टिक भी जाये तो भी तथारूप फलदायी नहीं बनता। इस विषय में आप सरीखे विचक्षण से हम क्या कहें? फिर भी आपसे प्रार्थना करता हूँ कि नाथ! आप इस अधमोचित क्रोध का त्याग करें। आप सरीखे महानुभाव की तो अपकारी और उपकारी पर समानदृष्टि होती है।' चित्रमुनि ने जब यह बात जानी तो श्रीसंभूतिमुनि को शांत करने के लिए वह भी वहां आ पहुंचे। भद्र हाथी की तरह मधुरवचनों से शास्त्रानुकूल बात सुनते ही उनका कोप उसी तरह शांत हो गया, जिस तरह मेघवृष्टि से पर्वतीय दावानल शांत हो जाता है। महाकोप रूपी अंधकार से मुक्त बने महामुनि संभूति क्षणभर में पूर्णिमा के चंद्र के समान प्रसन्न हो गये। अतः जनसमूह उन्हें वंदन करके क्षमायाचना करता हुआ अपने स्थान को लौट गया। चित्रमुनि और संभूतिमुनि वहां से उद्यान में पहुंचे। वहां वे दोनों मुनि पश्चात्ताप करने लगे-'आहार के लिए घर-घर घूमने से महादुःख होता है, किंतु यह शरीर आहार के पोषण से ही चलता है। मगर योगियों को इस शरीर और आहार की क्या आवश्यकता है?' इस प्रकार मन में निश्चय करके दोनों मुनियों ने संलेखना पूर्वक चतुर्विध-आहारत्याग रूप आमरण अनशन (संथारा) स्वीकार किया।
___एक दिन राजा ने सोचा- "मैं भूमि का परिपालक हूँ। मेरे राज्य में इस प्रकार से साधुओं को परेशान करके किसने अपमानित किया? इसका पता लगाना चाहिए।' किसी गुप्तचर से राजा को पता लगा कि मंत्री नमुचि के ये कारनामे हैं। जो पूजनीय की पूजा नहीं करता, वह पापी कहलाता है, तो जो पूजनीय पुरुष को मारता है, उसे कितना भयंकर पापी कहना चाहिए?' अतः आरक्षकों ने चक्रवर्ती के आदेश से नमुचि मंत्री को गिरफ्तार करके राजा के सामने पेश किया।
96