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ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की कथा
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ ब्रह्मदत्त चक्रवती की कथा :
प्राचीनकाल में साकेत नगर में चंद्रावतंसक राजा राज्य करता था। उसके चंद्र-समान मनोहर आकृति वाला मुनिचंद्र नाम का एक पुत्र था। भारवाही जैसे भार से घबराता है, वैसे ही कामभोगों से विरक्त होकर उसने सागरचंद्र मुनि के पास दीक्षा अंगीकार की। जगत्पूजनीय प्रव्रज्या का पालन करते हुए एक बार उसने अपने गुरु के साथ देशांतर में विचरण करने हेतु विहार किया। मार्ग में वह एक गांव में भिक्षा के लिए गया। परंतु वह लौटकर आया तब तक सार्थ वहां से चल पडा था। वह सार्थ से अलग हो गया। अतः सार्थभ्रष्ट हिरन के समान वह अकेला ही अटवी में भ्रमण करने लगा। भूख-प्यास से परेशान होकर वह वहां बीमार पड़ गया। वहीं चार ग्वालों ने बांधव की तरह उसकी सेवा की। ग्वालों के इस उपकार का बदला चुकाने की दृष्टि से मुनि ने उन्हें धर्मोपदेश दिया। सच है, सज्जनपुरुष अपकार करने वाले पर भी दया करते हैं तो उपकारी पर क्यों न करेंगे? उपदेश सुनकर उन्हें संसार से विरक्ति हुई और मुनि |से उन्होंने दीक्षा अंगीकार की। मुनि बने हुए वे चारों ऐसे प्रतीत होते थे, मानो चार प्रकार का धर्म ही मूर्तिमान हो। उनमें से दो तो सम्यक प्रकार से चारित्र की आराधना करते थे. परंत शेष दो धर्म से घणा करते थे। 'जी बड़ी विचित्र होती है।' धर्म की निंदा करने वाले वे दोनों साधु भी एक दिन आयु पूर्ण कर देवलोक में गये। 'सच है, | एक दिन के तप से भी जीव अवश्य स्वर्ग में चला जाता है।' देवलोक से आयुष्य पूर्ण कर वे दोनों दशपुर नगर में | शांडिल्य ब्राह्मण की जयवंती नाम की दासी के गर्भ से युगल पुत्र रूप में पैदा हुए। धीरे-धीरे बड़े हुए। यौवन अवस्था प्राप्त की। सयाने होने पर वे दोनों पिता की आज्ञानुसार खेत की रखवाली करने लगे। दासी-पुत्रों को तो ऐसा ही कार्य | सौंपा जाता है। एक दिन वे दोनों खेत में सोये हुए थे कि रात को अचानक एक काला सर्प बड़ के खोखले में निकला | और यमराजा के सहोदर के समान उसने दोनों में से एक को डस लिया। दूसरे भाई को जागने पर पता लगा तो वह उस सर्प को ढूंढने के लिए वहीं इधर-उधर घूम रहा था कि अचानक शत्रु की तरह झपटकर उस दुष्ट सर्प ने तत्काल ही दूसरे भाई को भी डस लिया। उस समय वहां उनके जहर उतारने वाला कोई नहीं था। इस कारण वे बेचारे वहीं पर काल-कवलित हो गये। वे दोनों संसार में जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। संसार में ऐसे निष्फल जन्म वाले को धिक्कार है। मृत्यु के बाद वे दोनों कालिंजर पर्वत के मैदान में एक हिरणी के गर्भ से जोड़े से मृग रूप में पैदा हुए; और साथ ही साथ बढ़ने लगे। एक दिन दोनों हिरन प्रेम से साथ-साथ चर रहे थे कि अचानक किसी शिकारी ने एक ही बाण से उन दोनों को बींध डाला। अतः दोनों वहीं मरकर गंगा नदी में एक राजहंसी के गर्भ से पर्व-जन्मों की तरह युगल हंस-रूप में उत्पन्न हुए। एक बार वे दोनों हंस एक जलाशय में क्रीड़ा कर रहे थे कि एक जल पारधि ने उन्हें जल में ही पकड़ा और उनकी गर्दन मरोड़कर मार डाला। वास्तव में धर्महीन की गति ऐसी ही होती है। मरकर उन दोनों ने वाराणसी में प्रचुर धनसमृद्ध मातंगाधिपति भूतदत्त के यहां पुत्र रूप में जन्म लिया। उन दोनों का नाम चित्र और संभूति रखा गया। यहां भी वे दोनों परस्पर स्नेही थे। नख और मांस के अभिन्न संबंध की तरह वे दोनों एक दूसरे से कभी अलग नहीं होते थे।।
वाराणसी में उस समय शंख राजा राज्य करता था। उसका प्रधानमंत्री लोकप्रसिद्ध नमुचि था। एक दिन शंख राजा ने नमुचि को किसी घोर अपराध के कारण वध करने हेतु भूतदत्त चांडाल को सौंपा। उसने नमुचि से कहा-'यदि तुम मेरे दोनों पुत्रों को गुप्त रूप से भूमिगृह (तलघर) में रहकर पढ़ा दोगे तो मैं तुम्हें अपने बंधु के समान मानकर तुम्हारी रक्षा करूंगा। नमुचि ने मातंग के वचन को स्वीकार किया, क्योंकि जीवितार्थी मनुष्य के लिए ऐसी कोई बात नहीं, जिसे वह न करे।' अब नमुचि चित्र और संभूति दोनों को अनेक प्रकार की विद्याएँ पढ़ाने लगा। इसी दरम्यान मातंगाधिपति की पत्नी से उसका अनुचित संबध हो गया। वह उसके साथ अनुरक्त होकर रतिक्रीड़ा करने लगा। भूतदत्त को जब यह पता चला तो वह उसे मारने के लिए उद्यत हुआ। 'अपनी पत्नी के साथ जारकर्म दुराचार कौन सहनकर सकता है? मातंग-पुत्रों को यह मालूम पड़ा तो उन्होंने नमुचि को चुपके से वहां से भगाया और उसे प्राणरक्षा रूप दक्षिणा दी। वहां से भागकर नमुचि हस्तिनापुर में आ गया। वहां वह सनत्कुमारचक्री का मंत्री बन गया। इधर युवावस्था आने पर चित्र और संभूति अश्विनीकुमार देवों की तरह बेखटके भूमंडल में भ्रमण करने लगे। वे दोनों हा-हा, हू-हू देव-गंधों
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