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हिंसा के कारण सुभूमचक्रवर्ती को नरक की प्राप्ति
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ अवश्य होती है; इस न्याय से परशुराम का क्षत्रिय सूचक परशु वहां जलने लगा। अतः उसने तुरंत तापसों से पूछा'क्या यहां कोई क्षत्रिय है? उन्होंने कहा-हम क्षत्रिय ही तापस बने हैं।' दावानल जैसे पर्वत शिखरों को घास रहित बना देता है, वैसे ही उसके पश्चात् परशुराम ने अपनी कोपाग्नि से पृथ्वी को सात बार निष्क्षत्रिय बना दी। अतः परशुराम ने अपनी पूर्ण हुई आशाओं के समान यमराज के पूर्णपात्र के समान शोभायमान थाल को विनष्ट हुए क्षत्रियों की दाढ़ाओं से पूर्ण भर दिया। एक बार उसने कुछ निमित्तज्ञों से पूछा-'मेरा वध किसके हाथों से होगा? वैर-विरोध रखने वाले को शत्रुओं से अपनी मृत्यु की सदा आशंका बनी रहती है। उन निमित्तज्ञों ने कहा- 'ये दाढ़ाएँ जिसकी नजर गिरने पर खीर के रूप में परिणत हो जायेंगी और उस सिंहासन पर बैठकर जो उस खीर को खायेगा; वही भविष्य में आपका वध करेगा।' परशुराम ने एक ऐसी दानशाला बनायी, जिसमें कोई भी व्यक्ति बेरोकटोक आकर दान ग्रहण कर सके। उसके अग्रभाग में सिंहासन स्थापित करके उस पर दाढ़ाओं से भरे उस थाल को रखा।
इधर आश्रम में प्रतिदिन तापसों से लालित-पालित सुभूम आंगन में बोये हुए पेड़ के समान दिनोंदिन बढ़ने लगा। एक दिन मेघनाद नाम के विद्याधर ने किसी निमित्तज्ञ से पछा-'मेरी यह कन्या पदमश्री सयानी हो गयी है. इसे किसको दूं?' तब उसने गणित करके कहा-'सुडौल कंधों वाले सुभूम को ही इसका वर बनाओ।' मेघनाद ने शुभ मुहूर्त देखकर |सुभूम के साथ अपनी कन्या का पाणिग्रहण कर दिया और स्वयं उसका पारिपार्श्विक सेवक बनकर रहने लगा। कुंएँ के मेंढक के समान अन्य स्थानों से अनभिज्ञ सुभूम ने एक दिन अपनी माता से पूछा-'मां! क्या लोक इतना ही है? इससे आगे कुछ नहीं है?' माता ने कहा-'बेटा! लोक का तो अंत ही नहीं है? हमारा आश्रम तो इस लोक के बीच में मक्खी के पैर टिकाने जितने स्थान में है। इस लोक में प्रसिद्ध हस्तिनापुर नामका नगर है। वहां तेरे पिता महापराक्रमी कृतवीर्य राजा राज्य करते थे। एक दिन परशुराम तेरे पिता को मारकर अपने राज्य पर स्वयं अधिकार जमाकर बैठ गया। उसने इस पृथ्वी को क्षत्रिय-रहित बना दी है। उसके भय से ही तो हम यहां रह रहे हैं।' यह सुनते ही मंगलग्रह के समान वैरी पर क्रोध करता हुआ सुभूम तत्काल हस्तिनापुर पहुंचा। सचमुच, क्षत्रियतेज दुर्द्धर होता है। वह सिंह के समान सीधा परशुराम की दानशाला में पहुंचा और सिंहासन पर जा बैठा। दाढ़ाएँ क्षण भर में खीर रूप में परिणत हो गयी। पराक्रमी सुभूम उस खीर को खा गया। सिंह जैसे हिरणों को मार डालता है, वैसे ही युद्ध के हेतु उद्यत जो भी ब्राह्मण वहां रक्षा के लिए तैनात थे, उन्हें मेघनाद विद्याधर ने मार डाले। दाढ़ी और केश फरफरा रहा परशुराम दांतों से होठ काटता हुआ क्रोध से कालपाश की तरह द्रुतगति से वहां आया; जहां सुभूम था। आते ही उसने सुभूम पर अपना परशु फेंका। परंतु जल में अग्नि के समान वह तत्काल शांत हो गया। उस समय दूसरा कोई शस्त्र न देखकर सुभूम ने भी| दाढ़ाओं वाला वह थाल उठाया और उसे चक्र की तरह घुमाने लगा। वह भी तत्काल चक्ररत्न बन गया। सच है, पुण्यसंपत्ति हो तो कौन-सी चीज असाध्य है? अब सुभूम आठवें चक्रवर्ती के रूप में प्रकट हो गया था। अतः उसने | उस तेजस्वी चक्र से कमल की तरह परशुराम का मस्तक काट डाला। जैसे परशुराम ने पृथ्वी को सात बार क्षत्रिय रहित बना दी थी; वैसे ही सुभूम ने २१ बार पृथ्वी को ब्राह्मण रहित बनायी। तत्पश्चात् भूतपूर्व राजा के हाथी, घोड़े रथ और पैदल सेना को स्वाधीन कर रक्त की अभिनव सरिता बहाते हुए नवीन सेना के साथ सुभूम ने सर्वप्रथम पूर्व-दिशा का दिग्विजय किया। तत्पश्चात् अनेक सुभटों के छिन्नमस्तकों से पृथ्वी को सुशोभित करने वाले सुभूम ने दक्षिणदिशा-पति की तरह दक्षिणदिशा में विजय-अभियान करके वहां भी विजय प्राप्त की। विजय प्राप्त करके उसने वहां सर्वत्र विजय पताका फहरा दी। फिर अनायास ही वैताढ्य गुफा को उघाड़कर मेरुपर्वत के समान पराक्रमी सुभूम ने म्लेच्छों को जीतने के लिए भारत के उत्तराखंड में प्रवेश किया। इस तरह चारों दिशाओं में भ्रमण करते हुए सुभूम ने सुभटों तथा पृथ्वी का उसी तरह चर-चरकर दिया. जैसे चक्की के दो पाट चनों को कर देते हैं। इसी प्रकार उसने पश्चिम दिशा की विजय चिह्न स्वरूप सुभटों की हड्डियों को पश्चिमी समुद्र तट पर ऐसे बिखेर दी, मानो समुद्रतट पर चारों ओर सीप और शंख फैले हों। इस प्रकार सुभूम ने छह खंडों की साधना की। निरंतर पंचेन्द्रियजीवों की हत्या करते हुए एवं रौद्रध्यान रूपी अग्नि से अंतरात्मा को सतत जलाते हुए सुभूम चक्रवर्ती मरकर सातवीं नरकभूमि में गया।' 1. अन्य कथा में सातवां खंड जितने जाते हुए मृत्यु का वर्णन है।
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