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हिंसा के फलस्वरूप नरकगामी सुभूम चक्रवर्ती
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २७ महसूस होता है। सभी जीवों के लिए यह बात अनुभवसिद्ध है; तो फिर भाले, बर्डी आदि शस्त्रों से मारे जाते हुए उस बेचारे जीव को कितना दुःख होता होगा? सचमुच उसे बड़ा दुःख होता है। जहां मरने की बात कहने से भी दुःख होता है, तो फिर कौन समझदार ऐसा होगा जो तीखे शस्त्रों से किसी प्राणी को मारेगा? ।।२६।।
अब दृष्टांतों द्वारा हिंसा के फल के संबंध में समझाते हैं
८३। श्रूयते प्राणिघातेन, रौद्रध्यानपरायणौ । सुभूमो ब्रह्मदत्तश्च, सप्तमं नरकं गतौ ।।२७।। अर्थ :- आगम में ऐसा सुना जाता है कि प्राणियों की हत्या से रौद्रध्यानपरायण होकर सुभूम और ब्रह्मदत्त |
चक्रवर्ती सातवीं नरक में गये ।।२७।। व्याख्या :- रौद्रध्यान के बिना अकेली हिंसा नरक-गमन का कारण नहीं होती। अन्यथा, सिंह का वध करने वाला तपस्वी साधु भी नरक में जाता। इसलिए रौद्रध्यान में तत्पर यानी हिंसानुबंधी रौद्रध्यान परस्त सुभूम और ब्रह्मदत्त ये दोनों चक्रवर्ती सातवीं नरक में गये। वे दोनों किस तरह नरक में गये? यह कथानक द्वारा क्रमशः बताते हैंसुभूम चक्रवती की कथा :
वसंतपुर नामक नगर में अग्निक नाम का बालक रहता था। उसके वंश में कोई भी न रहने के कारण ऐसा मालुम होता था मानो वह आकाश से ही सीधा टपक पड़ा हो। एक दिन वह वहां आये हुए एक सार्थ के साथ दूसरे देश की ओर चल पड़ा। किन्तु एक दिन अचानक ही अपने काफले में बिछुड़कर वह अकेला घूमता-घूमता एक तापस के आश्रम में आ पहुंचा। जमद् नाम के कुलपति ने उस अग्निक को पुत्र रूप में स्वीकारकर लिया। तब से लोगों में वह 'जमदग्नि' नाम से प्रसिद्ध हुआ। साक्षात् अग्नि के समान प्रचंड तप करने से वह भूतल में दुःसह तेजोराशि से युक्त बना। एक बार वैश्वानर नाम का महाश्रावक देव और तापसभक्त धनवंतरि देव दोनों में विवाद छिड़ गया कि 'किसका | धर्म प्रमाणभूत है?' श्रावकदेव ने कहा-'अरिहंत का धर्म प्रमाणभूत है।' इस पर तापसभक्त देव ने कहा कि 'तापसधर्म प्रमाण है।' इस विवाद के अंत में दोनों ने यह निर्णय किया कि 'जैनसाधु और तापस में से किसमें अधिकता या न्यूनता है? इन दोनों में गुणों में अग्रगण्य कौन है? इसकी परीक्षा की जाय।
इधर उस समय मिथिला में नवीन धर्म प्राप्त राजा श्री वासुपूज्यस्वामी के पास दीक्षा लेने हेतु भावसाधु बन (साधुवेष धारण) कर वहां से प्रस्थान करके चंपापुरी की ओर जा रहा था। उसे जाते हुए मार्ग में उन दोनों देवों ने देखा
और उसकी परीक्षा लेने की नीयत से उन दोनों देवों ने राजा से आहार-पानी ग्रहण करने की प्रार्थना की। किन्तु क्षुधातृषातुर होते हुए भी राजा ने साधु के भिक्षानियमों के अनुकूल आहार-पानी न होने के कारण लेने से इन्कार कर दिया। सच है, वीर पुरुष अपने सत्य से कभी विचलित नहीं होते। तब उन दोनों परीक्षक देवों ने मनुष्यों में देवसमान उस राजा के कोमल चरण-कमलों में चुभे, इस प्रकार के करवत के समान पैनी नौंक वाले कंकर और कांटे सारे रास्ते में बिखेर दिये। जिनसे उन्हें अतीव पीड़ा हुई; पैर छिद गये, उनमें से रक्त की धारा बहने लगी। फिर भी वे उस कठोरमार्ग को कमल के समान कोमल समझकर चलते रहे। फिर उन देवों ने राजा को विचलित करने के लिए रास्ते पर ही नृत्य, गीत आदि का आयोजन किया; परंतु वे वहां ठिठके नहीं। जैसे समानगोत्रीय पर दिव्यचक्र का प्रभाव नहीं होता, वैसे ही उनका वह उपाय भी निष्फल हुआ। अतः देवों ने अब सिद्धपुत्र का रूप बनाया। और उसके सामने आकर कहा हे महाभाग्यशाली! अभी तो तूं बहुत लंबी उम्र वाला युवक है। अतः तूं अपनी इच्छानुसार सुखोपभोगकर। इस यौवनवय में तुझे तप करने की कैसे सूझी? उद्यमी पुरुष भी रात का काम प्रातःकाल नहीं करता। इसलिए हे भाई! यौवन वय पूर्ण होने के बाद जब शरीर दुर्बल हो जाय और बुढ़ापा आ जाय 'तब तप करना।' इस पर राजा ने कहा- 'यदि मेरी आयु लंबी होगी तो मुझे कर्मक्षय करने या पुण्योपार्जन करने का सुंदर अवसर मिलेगा। जितनी मात्रा में पानी होगा, उसी के अनुसार उतनी मात्रा में कमल की नाल भी बढ़ेगी। यौवनवय में इंद्रियाँ चंचल होती है। अतः इसी उम्र में तप करना वास्तव में तप है। दोनों ओर से भयंकर शस्त्रास्त्रों का प्रहार हो रहा हो, उस युद्ध में जो टिका रहकर जौहर (पराक्रम) दिखाये, वही वस्तुतः शूरवीर कहलाता है।' जब राजा अपने सत्य से किसी भी उपाय से जरा भी चलायमान
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