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दुःखमोचकता और चार्वाकमत का खंडन
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २० से २२
अनुमान से की जा सकती है। और अपने शरीर में बुद्धि पूर्वक होती हुई क्रिया को देखकर दूसरों के शरीर में भी उसी | तरह जान लेनी चाहिए । इस तरह प्रमाणसिद्ध क्रिया को कौन रोक सकता है? इसलिए जीव का जब परलोकगमन भी सिद्ध हो चुका है; तब परलोक मानना असंगत नहीं है। उसी तरह पुण्य-पाप का स्वीकार तो अपने आप हो ही जाता है। तपस्या को कष्ट बताना इत्यादि कथन भी उन्मत्तप्रलाप की तरह अविवेकी का कथन है। ऐसे चैतन्ययुक्त पुरुष के | कथन को स्व कल्पित बताना हास्यास्पद क्यों नहीं होगा? इसलिए आत्मा निराबाध तथा स्थित, उत्पाद और व्यय | स्वरूप है और ज्ञाता, दृष्टा, गुणी, भोक्ता, कर्त्ता और अपनी-अपनी काया के प्रमाण जितना है। इस तरह आत्मा की सिद्धि हो जाने पर हिंसा करना योग्य नहीं है। हिंसा का परिहार ही त्याग - रूप अहिंसा - व्रत कहलाता है ।। १९ ।। अब हिंसा के नियम को स्पष्टता से समझाने के लिए दृष्टांत देते हैं
अर्थ
। ७६ । आत्मवत् सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये । चिन्तयन्नात्मनोऽनिष्टां हिंसामन्यस्य नाचरेत् ॥ २०॥ जैसे स्वयं को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है, वैसे ही, जीवों को भी सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, ऐसा विचारकर स्वयं के लिए अनिष्ट रूप हिंसा का आचरण दूसरे के लिए भी न करे ||२०|| व्याख्या :- यहां सुख-शब्द से सुख के साधन अन्न, जल, पुष्पमाला, चंदन आदि तथा दुःख-शब्द से दुःख के साधन - वध, बंधन, मरण आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए। दुःख के साधन स्वयं की तरह दूसरे को भी अप्रिय है; | इसलिए हिंसादि (दुःखोत्पादक क्रिया) नहीं करनी चाहिए। यहां सुख और दुःख को एक सरीखी अनुभूति को दृष्टांत | से समझाने के लिए कहते हैं- जैसे स्वयं को सुख के साधन प्रिय है और दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरे सभी प्रकार के जीवों को ये प्रिय और अप्रिय है। अन्य धर्मग्रंथों में भी इसी बात की पुष्टि की है- 'धर्म का सार सुनो और सुनकर | उसे मन में यथार्थ रूप से धारण करो, फिर जो बात अपनी आत्मा के प्रतिकूल हो, उसे दूसरों के लिए भी मत करो। ।।२०।।'
यहां एक शंका प्रस्तुत करते हैं कि- 'शास्त्र द्वारा निषिद्ध वस्तु का आचरण किया जाये तो दोष लगता है, किंतु यहां सजीवों की हिंसा का तो निषेध किया है, लेकिन स्थावरजीवों की हिंसा का तो निषेध नहीं किया है; अतः गृहस्थ | श्रावक किसी भी रूप में स्थावरजीवों की हिंसा में स्वेच्छा से प्रवृत्ति करे तो क्या दोष है? इसी का समाधान देते हैं
।७७। निरर्थिकां न कुर्वीत, जीवेषु स्थावरेष्वपि । हिंसामहिंसाधर्मज्ञः, काङ्क्षन् मोक्षमुपासकः ।।२१।। अहिंसाधर्म को जानने वाला मुमुक्षु श्रमणोपासक स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा न करे ||२१||
अर्थ :व्याख्या :- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीवों (स्थावरों) की भी निरर्थक हिंसा नहीं करनी चाहिए। | शरीर और कुटुंब के निर्वाह के लिए अनावश्यक हिंसा का यहां निषेध किया गया है। वस्तुतः विवेकी श्रावक शरीर एवं कुटुंब आदि के प्रयोजन के अतिरिक्त व्यर्थ हिंसा नहीं करता । अहिंसा-धर्म को जानने वाला यह भली-भांति जानता | है कि निषिद्ध वस्तु तक ही अहिंसाधर्म सीमित नहीं है; अपितु अनिषिद्ध वस्तु में भी यतना रूप अहिंसा - धर्म है। | इसलिए वह उस धर्म को भलीभांति समझकर, बिना प्रयोजन स्थावरजीवों की भी निरर्थक हिंसा नहीं करता। अतः जो | शंका उठाई गयी थी कि निषिद्ध अहिंसा का आचरण इतनी सूक्ष्मदृष्टि से श्रावक क्यों करे? इसके समाधान के रूप में | कहा गया है - मोक्षभिलाषी श्रावक साधु की तरह निरर्थक हिंसा का आचरण कतई न करे। यहां पुनः एक शंका उठायी | जाती है कि जो व्यक्ति निरंतर हिंसा करने में तत्पर रहता है, वह अपना सर्वस्व धन और सर्वस्व प्राण तक देकर भी | उस हिंसाजनित पाप की शुद्धि करता है तो फिर ऐसी हिंसा के त्याग करने के क्लेश से क्या लाभ? ।। २१ ।। इसके उत्तर में कहते हैं
।७८ । प्राणी प्राणितलोभेन, यो राज्यमपि मुञ्चति । तद्वधोत्थमघं सर्वोर्वीदानेऽपि न शाम्यति ॥२२॥ अर्थ :- यह जीव जीने के लोभ से राज्य का भी त्यागकर देता है। उस जीव का वध करने से उत्पन्न हिंसा के पाप का शमन (पाप से छुटकारा) सारी पृथ्वी का दान करने पर भी नहीं हो सकता ।। २२ ।।
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