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हिंसा के फल
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १९ इन सब विकल्पों (भंग) की तीन करण और तीन योग के साथ गणना की जाय तो इनके कुल ४९ भेद होते हैं। वे इस प्रकार है
हिंसा न करने के कारण (कृत) की अपेक्षा ७ विकल्प १. मन, वचन, काया से, २. मन और वचन से, ३. | मन और काया से, ४. वचन और काया से, ५. सिर्फ मन से, ६. सिर्फ वचन से, ७. सिर्फ काया से । (१) इसी तरह हिंसा न कराने ( कारित) की अपेक्षा से ७ विकल्प होते हैं। (२) तथा अनुमोदन की अपेक्षा से भी सात विकल्प होते हैं । (३) हिंसा न करे, न करावे, मन से, वचन से, काया से, मन-वचन से मन- काया से, वचन काया से, मन, वचन और | काया से यह करण और कारण से होने वाले सात भंग हुए। (४) इसी तरह करण के अनुमोदन से सात भंग, (५) कारण | ( कारित) के अनुमोदन से सात भंग (६) तथा करना, कराना और अनुमोदन से होने वाले सात भंग। (७) ये सब मिलाकर | ४९ विकल्प - भंग होते हैं। और ये त्रिकाल -विषयक होने से प्रत्याख्यान के कुल १४७ भंग होते हैं। ग्रंथों में कहा है। कि- 'जिसने प्रत्याख्यान (पच्चक्खान) के १४७ विकल्प (भंग) हस्तगत कर लिये, वह प्रत्याख्यान - कुशल माना जाता है। उससे कम भंगों वाला सर्व भंगों से प्रत्याख्यान के रूप में अकुशल समझा जाता है। त्रिकाल -विषयक इस प्रकार | से है - अतीतकाल में जो पाप हुए हों, उनकी निंदा करना, वर्तमानकाल के पापों का संवर करना ( रोकना) और भविष्यकाल के पापों का प्रत्याख्यान करना । कहा भी है- 'श्रमणोपासक भूतकाल के पापों के लिए आत्मनिंदा (पश्चात्ताप) करता है, वर्तमान के पापों का निरोध करता है और भविष्यकाल के पापों का प्रत्याख्यान करता है।' ये भंग (विकल्प) अहिंसा - अणुव्रत की अपेक्षा से कहे है। दूसरे अणुव्रतों के लिए भी इसी तरह विकल्प (भंग) जाल समझ लेना ।। १८ ।। इस तरह सामान्य रूप से हिंसादि से संबंधित विरति बताकर अब हिंसा आदि प्रत्येक का स्वरूप बताने की इच्छा से सर्वप्रथम हिंसा से किन-किन परिणामों का अनुभव करना पड़ता हैं, यह बताते हैं।७५।पङ्गु-कुष्ठि-कुणित्वादि, दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां सङ्कल्पतस्त्यजेत्।।१९।।
अर्थ :- हिंसा का फल लंगड़ापन, कोढ़ीपन, हाथ-पैर आदि अंगों की विकलता आदि मिलता है। इसे देखकर बुद्धिमान पुरुष निरपराध त्रस जीवों की संकल्प पूर्वक हिंसा का त्यांग करे ।। १९ ।।
व्याख्या :- जब तक जीव पाप का फल अपनी आंखों से नहीं देख लेता, तब तक पाप 'वह प्रायः नहीं हटता । इसलिए यहां पाप का फल बताकर हिंसा से विरत होने का उपदेश दिया गया है। पैर होने पर भी चलने में असमर्थ हो उसे लंगड़ा, कुष्ट रोग वाले को कोढ़िया, हाथ-पैर आदि से रहित को लूला कहते हैं। आदि शब्द से शरीर के नीचे का भाग खराब हो अथवा दूसरे अंग अनेक प्रकार के रोग से ग्रस्त हो, काया के ऊपर के भाग में अंगविकलता हो, | तो इन सब को हिंसा का फल समझना चाहिए। ऐसा देखकर बुद्धिमान पुरुष शास्त्रबल से यह निश्चित जानकर कि यह | बेचारा हिंसा के फल भोग रहा है, अतः मैं अब हिंसा का त्याग करता हूँ। त्याग किसका और किस प्रकार का करे ? | इसके उत्तर में बताया गया है कि निरपराधी द्वीन्द्रियादि जीवों की संकल्प पूर्वक [निरपेक्ष पने से] हिंसा न करने का नियम करे।' अपराधी जीवों के लिए ऐसा नियम नहीं बताया है। त्रस - जीवों की हिंसा का त्याग कहकर यहां सूचित किया गया | है कि गृहस्थ एकेन्द्रिय-विषयक हिंसा का त्याग करने में असमर्थ है और संकल्पत इसलिए कहा है कि इरादे से हिंसा | छोड़े। खेती आदि आरंभजनक प्रवृत्ति से लाचारी में संकल्प यानी इरादे के बिना जो हिंसा हो जाती है, वह श्रावक के लिए वर्जित नहीं है। मतलब यह है कि त्रस जीवों की संकल्प हिंसा का त्याग करे । एकेन्द्रिय स्थावर जीवों की हिंसा का जहां तक हो सके त्याग करना चाहिए, जहां त्याग अशक्य हो, वहां हमेशा यतना करनी चाहिए। इस संबंध में कुछ श्लोक प्रस्तुत है । जिनका अर्थ इस प्रकार है
जो आत्मा और शरीर को सर्वथा पृथक् मानते हैं, उनके मत से शरीर का विनाश होने पर भी आत्मा का विनाश नहीं होता व तज्जनित हिंसा नहीं लगती। इसी प्रकार आत्मा और शरीर को सर्वथा अभिन्न मानने पर शरीर के नाश | होने पर आत्मा का भी नाश हो जाता है। अतः उनकी दृष्टि में परलोक का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए अनेकांतदृष्टि से आत्मा को शरीर से भिन्न भी माना जाता है, अभिन्न भी। इस दृष्टि से शरीर को क्षति पहुंचाने पर या नष्ट करने
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