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हिंसक निंदनीय
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक २३ से २६
व्याख्या :- मरते हुए जीव को चाहे जितने सोने के पर्वत या राज्य दिये जाय, फिर भी वह (जीव) स्वर्ण आदि | वस्तुओं को अनिच्छनीय समझकर उनको स्वीकार नहीं करता। बल्कि वह एकमात्र जीने की ही अभिलाषा करता है। इसलिए जीवन (जीना) को प्रिय मानने वाले जीवों का वध करने से उत्पन्न हिंसा के पाप का शमन समग्र पृथ्वी का दान | कर देने पर भी नहीं होता। श्रुति में भी कहा है- 'समग्र दानों में अभयदान प्रधान है ।। २२ ।। '
हिंसा करने वालों का जीवन कितना निंदनीय है? इसे अब चार श्लोकों में बताते हैं
||७९ । वने निरपराधानां वायु-तोय-तृणाशिनाम् । निघ्नन् मृगाणां मांसार्थी, विशेष्येत कथं शुनः ? ||२३||
अर्थ :- वन में रहने वाले वायु, जल और हरी घास सेवन करने वाले निरपराध, वनचारी हिरणों को मारने वाले में मांसार्थी कुत्ते से अधिक क्या विशेषता है? ।।२३।।
व्याख्या ः- वन में निवास करने वाले न कि किसी के स्वामित्व की भूमि पर रहने वाले वनचारी जीव क्या कभी | अपराधी हो सकते हैं? इसीलिए कहते हैं कि - वे वनचारी मृग परधनहरण करने, दूसरे के घर में सेंध लगाकर फोड़ने, दूसरे को मारने, लूटने आदि अपराधों से रहित होते हैं। उनके निरपराधी होने के और भी कारण बताते हैं कि वे वायु, | जल और घास का सेवन करने वाले होते हैं। और ये तीनों चीजें दूसरे की नहीं होने से इनका भक्षण करने वाले | अपराधी नहीं होते। मांसार्थी का अर्थ यहां प्रसंगवश मृग के मांस का अर्थी (लोलुप) समझना चाहिए। मृग कहने से यहां तृण, घास आदि खाकर वन में विचरण करने वाले सभी जीवों का ग्रहण कर लेना चाहिए। इस तरह से निरपराध | मृगों का वध करने में तत्पर मृगमांसलोलुप मनुष्य मांस में लुब्ध कुत्ते से किस प्रकार कम समझा जा सकता है? अर्थात् | उसे कुत्ते से भी गया बीता समझना चाहिए || २३।।
अर्थ :
। ८० । दीर्यमाणः कुशेनापि यः स्वाङ्गे हन्त ! दूयते । निर्मन्तून् स कथं जन्तूनन्तयेन्निशितायुधैः ? ||२४|| अपने शरीर के किसी भी अंग में यदि डाभ की जरा-सी नोक भी चुभ जाय तो उससे मनुष्य दुःखी हो उठता है। अफसोस है, वह तीखे हथियारों से निरपराध जीवों का प्राणांत कैसे कर डालता है? उस समय वह उससे खुद को होने वाली पीड़ा का विचार क्यों नहीं करता? ।।२४।।
व्याख्या : - वास्तव में, जो अपनी पीड़ा के समान परपीड़ा को नहीं जानता, वह लोक में निंदनीय समझा जाता है। पशुओं के शिकार करने के दुर्व्यसनी क्षत्रियों को किसी ने साफ-साफ सुना दिया रसातल में जाय तुम्हारा यह हिंसा में पराक्रम । जो अधिक बलवान होकर भी अशरण, निर्दोष और अतिनिर्बल का वध करता है। यह कैसी दुर्नीति है, तुम्हारी ? कैसा अन्याय है, निर्दोष प्राणियों पर ? बहुत अफसोस है कि यह सारा जगत् अराजक बन गया है। ।८१। निर्मातुं क्रूरकर्माणः, क्षणिकामात्मनो धृतिम् । समापयन्ति सकलं, जन्मान्यस्य शरीरिणः ।।२५।। क्रूर कर्म करने वाले शिकारी अपनी क्षणिक तृप्ति के लिए दूसरे जीव के समस्त जन्मों का नाश कर देते हैं ।। २५ ।।
अर्थ :
व्याख्या :
हिंसादि रौद्रकर्म करने वाले शिकारी आदि अपनी जिह्वा की क्षणिक तृप्ति के लिए, जरा सी जिह्वा | लालसा की शांति के लिए दूसरे जीवों के जन्म समाप्त कर देते हैं। कहने का अर्थ है कि दूसरे जीवों के मांस से होने वाली अपनी क्षणिक तृप्ति के कारण दूसरे जीव का तो सारा जीवन ही समाप्त हो जाता है। यह बड़ी भारी क्रूरता है। | स्मृतिकार भी कहते हैं - वह प्राणी, जिसका मांस क्रूर मनुष्य खाता है और वह क्रूर मनुष्य, इन दोनों के अंतर पर विचार करें तो एक की क्षणभर के लिए तृप्ति होती है, जबकि दूसरे के प्राणों का सर्वथा वियोग हो जाता है ।। २५ ।। ।८२। म्रियस्वेत्युच्चमानोऽपि देही भवति दुःखितः । मार्यमाणः प्रहरणैर्दारुणैः स कथं भवेत् ? ॥२६॥
अर्थ :- अरे! मर जा तूं! इतना कहने मात्र से भी जब जीव दुःखी हो जाता है तो भयंकर हथियारों से मारे जाते हुए जीव को कितना दुःख होता है ? || २६ ।।
व्याख्या :- मार देने से ही नहीं, अपितु सिर्फ 'मर जा तूं ' इतना कहने से ही जीव को मृत्यु के समान दुःख
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