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हिंसा के फल
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १९ पर जो पीड़ा उक्त शरीरधारी को होती है, उसी के कारण वहां वध कर्ता को हिंसा लगती है। इसलिए जिस हिंसा से मरने वाले जीव को दुःख हो, उसके मन को क्लेश हो, उसे नयी योनि में उत्पन्न होना पड़े, उसकी पूर्वपर्याय का नाश हो, ऐसी हिंसा का पंडित-पुरुष प्रयत्न पूर्वक त्याग करे। जो प्रमाद से दूसरे जीवों का नाश करता है, उसे ज्ञानी पुरुषों ने संसारवृक्ष की बीजभूत हिंसा कही है। जीव मरे या ना मरे तो भी प्रमाद करने वाले को अवश्य ही हिंसा लगती है। परंतु प्रमाद से रहित व्यक्ति के निमित्त से यदि किसी जीव का प्राणनाश हो भी जाता है; तो भी हिंसा नहीं लगती। प्रश्न होता है-जीव (आत्मा) जब सर्वथा नित्य है, अपरिणामी है, तो ऐसी दशा में जीव की हिंसा हो नहीं सकती और सर्वथा क्षणिक (एकांत अनित्य) मानें तो जीव के क्षणभर में नष्ट होने से उसकी भी हिंसा कैसे लग सकती है? क्योंकि उनके मत से, वह जीव, जिसे मारने वाले ने मारा था, क्षण-विध्वंसी था ही, उस क्षण में वह ध्वस्त होता ही; जिसका प्राणनाश किया है, वह तो अब रहा ही नहीं। इसलिए जीव नित्यानित्य और परिणामी मानकर काया का किसी भी प्राण के वियोग से पीड़ा होने के कारण पाप की कारणभूत हिंसा हो जाती है। ___कितनों का यह भी कहना है कि प्राणियों के घात करने वाले बाघ, सिंह, सर्प आदि जंतुओं को तो देखते ही मार डालना चाहिए, क्योंकि ऐसे एक हिंसक जीव का घातकर देने से अनेक जीवों की रक्षा हो जायगी। यह कथन भी भ्रांतिपूर्ण है। ____ 'सभी जीव दूसरे का नाश करके जीते हैं;' इस मत को माना जाय तो अपने जीने के लिए सभी दूसरों को मारने लगेंगे। 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली कहावत चरितार्थ हो जायेगी। इसमें लाभ बहुत ही थोड़ा हो तो भी मूलधन का स्पष्टतः विनाश है। अहिंसा से होने वाला धर्म हिंसा से कैसे हो सकता है?
जल में उत्पन्न होने वाला कमल आग में कैसे उत्पन्न हो सकता है? पाप की हेतुभूत हिंसा पाप को मिटाने वाली कैसे बन सकती है? मृत्यु का कारण रूप कालकूट विष जीवन देने वाला कदापि नहीं होता।
दःखमोचक नामक एक नास्तिकमत है। उसका कहना है कि संसार में बहत से आदमी रोगादि विविध दःख पा रहे हैं। उन दुःखियों का वध होना ही ईष्ट है। क्योंकि दुःखियों को खत्म कर देने से उनके दुःख अवश्य मिट जायेंगे; उन्हें दुःखों से छुटकारा मिल जायगा। यह कथन भी यथार्थ नहीं है। क्योंकि ऐसे जीव मरने के बाद प्रायः नरकगामी होते हैं। वे अल्पदुःख वाले जीव यों मरकर अनंत दुःख के भागी बनते हैं। इसी तरह एक मत और है, जो मानता है-सुखी जीवों का घातकर देने से वे पाप करने से रुक (बच) जायेंगे। कुधार्मिकों के ऐसे वचन भी त्याज्य है।
चार्वाक नाम का नास्तिक भी कहता है कि 'मूल में आत्मा ही किसी प्रकार से सिद्ध नहीं होती है, तो फिर आत्मा के बिना हिंसा किसकी होगी? और उस हिंसा का फल कौन भोगेगा? सड़े हुए आटे आदि से जैसे पिष्टादि मद्य तैयार हो जाता है, वैसे ही पांच भूतों के एकत्र होने से चैतन्य प्रकट हो जाता है और पांचभूतों के समूह के नष्ट होने पर उसका नाश हो जाता है। फिर वे यों भी कहते हैं कि आत्मा जब यहीं समाप्त हो जाती है, तो उसके परलोकगमन की तो बात ही नहीं रहती। और परलोक-गमन के अभाव में पुण्य-पाप की चर्चा करना व्यर्थ है। इसके लिए फिर विविध तपस्याएँ करना, सिर्फ कष्ट भोगने का अद्भुत तरीका है। संयम मिले हुए भोगविलासों से वंचित होने के समान है। इस प्रकार वे नास्तिकता के ऐसे विचार दूसरों के गले उतार देते हैं।
___ अतः उनकी बातों का युक्तियुक्त उत्तर देकर उन्हें निरुत्तर करते हैं। 'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं, इस प्रकार की प्रतीति शरीर, इंद्रियों या मन को नहीं हो सकती; वह तो आत्मा को ही हो सकती है। इस दृष्टि से आत्मा सिद्ध होती है। मैं घट को जानता हूँ।' इस वाक्य में तीन वस्तुओं का ज्ञान होता है; कर्म, क्रिया और कर्ता। इन तीनों में कर्ता का निषेध कैसे होगा? यदि शरीर को ही कर्ता माने तो वह भी ठीक नहीं; क्योंकि अचेतन कर्ता नहीं हो सकता। अगर पंचभूत एवं चैतन्य के योग से उत्पन्न चेतन को कर्ता माना जाय तो वह भी संगत नहीं है; क्योंकि ऐसे चेतन में | एककर्तृत्व का अभाव होने से-'मैंने देखा, मैंने सुना, स्पर्श किया, सूंघा, चखा या याद किया इत्यादि कथन पंचभूत और चैतन्य को अभिन्न मानने पर घटित नहीं हो सकता। इस तरह जैसे स्वानुभव से अपने शरीर में भी चेतना स्वरूप सिद्ध हुआ, वैसे दूसरों के शरीर में आत्मा की सिद्धि
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