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अणुव्रत स्वरुप
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १७ से १८ ही क्लेशदायी और निर्जराफल से रहित मालूम होता है! किसान चौमासा लगते ही वर्षा का निश्चय न होने पर भी जैसे जमीन जोतने आदि की मेहनत करता है, वैसे ही इस तपस्या वगैरह के लिए किया गया कठोर श्रम निष्फल ही प्रतीत होता है और सफल भी। कहा भी है-'पूर्वकालीन साधक पुरुष यथोचित मार्ग पर चलने वाले थे, इसलिए उनको तो योग्य फल मिल सकता था, परंतु हम इस निकृष्ट युग के तथा बुद्धि और संघयण रहित हमको ऐसे फल की प्राप्ति कैसे हो सकती है?' इस प्रकार की विचिकित्सा में अंतर है, शंका हमेशा समग्र और असमग्र पदार्थ विषयक द्रव्य-गुण संबंधी होती है जब कि विचिकित्सा भी भगवद्वचनों के प्रति अश्रद्धा रूप होने से सम्यक्त्व का दोष है। शंका और विचिकित्सा क्रिया के फल से संबंधित होती है। अथवा विचिकित्सा का यह अर्थ भी है-सदाचारी मुनियों के आचार के संबंध में निंदा करना। जैसे ये मुनि शरीर पर पसीने के कारण बड़े दुर्गन्धित और मलिन क्यों रहते हैं, क्यों नहीं अच्छी तरह स्नान कर लेते? अचित्त पानी से स्नान करने में कौन-सा दोष लग जाता है? इस प्रकार भगवदुक्त धर्म के संबंध में अश्रद्धा रूप होने से तत्त्वतः यह सम्यक्त्व का दोष है।
मिथ्यादृष्टिप्रशंसा - विपरीत दर्शन वाले-मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करना मिथ्यादृष्टिप्रशंसा है। यह भी देशतः और सर्वतः दो प्रकार की होती है। सर्वतः प्रशंसा, जैसे कोई कहे कि 'कपिल आदि सबके दर्शन युक्तियुक्त है।' इस प्रकार माध्यस्थभाववाली प्रशंसा करना सम्यक्त्वदूषण है। हमने स्तुति में कहा है -हे नाथ! वह बात अत्यंत निश्चयवाली है कि वे परमती मत्सरी लोक की मुद्रा-आकृति से आपकी मुद्रा को अतिशयवान् नहीं मानते। माध्यस्थ स्वीकृत कर परीक्षक बने है उनको काच के टुकडे और मणि में अंतर दिखायी नहीं देता। (अयोग २७) देशतः प्रशंसा, यथा-यह सुगतवचन अथवा सांख्यवचन या कणादवचन ही यथार्थ है। यह तो स्पष्टतः सम्यक्त्व का दोष है।
मिथ्यादृष्टि का गाढ़ परिचय - ऐसे मिथ्यादृष्टियों के साथ एक स्थान में रहना, परस्पर वार्तालाप आदि व्यवहार बढ़ाकर उनका अतिपरिचय करना। एक जगह साथ रहने से या बारबार उनके संपर्क में आने से, उनकी प्रक्रिया के सुनने-देखने से दृढ़सम्यक्त्वी की दृष्टि में भी शिथिलता आना संभव है; तब मंदबुद्धि वाले, धर्म का स्वीकार करने वाले नवागंतुकों के मन में भिन्नता आ जाय, इसमें तो कहना ही क्या? इस दृष्टि से मिथ्यादृष्टि के गाढ़ परिचय को सम्यक्त्व का दूषण बताया गया है। - अतः यह आवश्यक है कि जिसे विशिष्ट द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव रूप सम्यक्त्व सामग्री प्राप्त हुई हो, वह उसे टिकाने और यथार्थ रूप से पालन करने हेतु गुरुदेव से विधि पूर्वक सम्यक्त्व ग्रहण करे। कहा भी है-दोष की संभावना | की स्थिति में श्रमणोपासक मिथ्यात्व से वापिस हटने की दृष्टि से पहले द्रव्य और भाव से पुनः सम्यक्त्व अंगीकार करे। तत्पश्चात् उसे परमतीय देवों या देवालयों में प्रभावना, वंदना-पूजा आदि कार्य नहीं करना चाहिए और न ही लोकप्रवाह में बहकर लौकिक तीर्थों में (पूज्यबुद्धि से) स्नान, दान, पिंडदान, यज्ञ, व्रत, तप, संक्रांति, चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण आदि के अनुष्ठान इत्यादि करना चाहिए। मूल शुद्धि प्र. ४-५] ।
जब मिथ्यात्वमोहनीय कर्म की कुछ कम एक सागरोपम कोटाकोटि स्थिति शेष रह जाती है, तब जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है। और शेष रही हुई स्थिति में से दो से नौ पल्योपम की स्थिति जब पूर्ण करता है, तब देशविरतिश्रावकगुणस्थान प्राप्त करता है। कहा भी है-'सम्यक्त्वप्राप्ति के बाद पल्योपम पृथक्त्व में अर्थात् ऊपर कहे अनुसार दो से नौ पल्योपम की स्थिति और पूर्ण करने पर व्रतधारी श्रावक होता है ।।१७।।
हमने पहले कहा था-'पांच अणुव्रत सम्यक्त्वमूलक होते हैं। इनमें से सम्यक्त्व का स्वरूप विस्तार से बताकर अब अणुव्रतों का स्वरूप बताते हैं
१७४। विरतिं स्थूलहिंसादेद्विविध-त्रिविधादिना । अहिंसादीनि पञ्चाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः ॥१८॥ अर्थ :- स्थूल हिंसा आदि से द्विविध त्रिविध आदि यानी ६ प्रकार आदि रूप से विरत होने को श्री जिनेश्वरदेवों
ने अहिंसादि पांच अणुव्रत कहे हैं ।।१८|| व्याख्या :- मिथ्यादृष्टियों अथवा स्थूलदृष्टि वालों में भी जो हिंसा रूप से प्रसिद्ध है, उसे स्थूलहिंसा या त्रस जीवों की हिंसा कहते हैं। स्थूलशब्द से उपलक्षण से निरपराधी त्रसजीवों की संकल्प पूर्वक हिंसा का अर्थ भी गृहीत होता
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