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सम्यक्त्व के पांच दूषण
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १७ ७३। शंका कांक्षा विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् । तत्संस्तवश्च पञ्चापि सम्यक्त्वं दूषयन्त्यलम् ।।१७।। अर्थ :- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा और उसका गाढ़ परिचय (संसर्ग) ये पांचों सम्यक्त्व
को अत्यंत दूषित करते हैं ।।१७।। व्याख्या :- शंका आदि पांच दूषण निर्दोष सम्यक्त्व को बहुत दूषित करते हैं, इसलिए इन्हें दूषण कहा है। क्रमशः इनका लक्षण यों है
शंका - संदेह करना शंका है। शंका सर्वविषयक (सर्वांश की) भी होती है, देशविषयक (आंशिक) भी। सर्वविषयक शंका यथा- 'पता नहीं, यह धर्म होगा या नहीं? देशविषयक शंका धर्म के किसी एक अंग के संबंध में होती है, जैसे-यह जीव तो है, परंतु सर्वगत है या असर्वगत? प्रदेश वाला है या अप्रदेशी? ये दोनों प्रकार की शंकाएँ वीतरागकथित प्रवचन पर अविश्वास रूप होने से सम्यक्त्व को दूषित-मलिन बना देती है; उसमें चल, मल या अगाढ दोष पैदाकर देती है। जिज्ञासा के रूप में किसी के सामने कोई शंका प्रस्तुत करना दोषयुक्त नहीं, किन्तु विजिगीषा या अश्रद्धा से प्रेरित होकर शंका करना दोष पूर्ण है। कदाचित मोहवश कोई संशय पैदा हो जाय तो श्रद्धा एवं विनय के साथ अर्गला के समान उसे धारण करके रखे और यथावसर ज्ञानवान महानुभावों के समक्ष प्रकट करे। किसी गंभीर विषय में अपनी दुर्बलमति के कारण अथवा उसका समाधान करने वाले आचार्यों का संयोग न मिलने से या अपने ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण समझने योग्य विषय को अत्यंत गहन होने से या उदाहरण संभव न होने से उसका
ई समझ में न आये तो बद्धिमान श्रद्धाल व्यक्ति यों विचार करे कि वीतराग सर्वज्ञ प्रभु तो यथार्थ कथन करते हैं, वे किसी की ओर से उपकार की आशा-स्पृहा से निरपेक्ष, निःस्वार्थ परोपकार परायण, जगत् में सर्वश्रेष्ठ त्यागी, रागद्वेष-मोह-विजेता होते हैं। वे कदापि विपरीत कथन नहीं करते। (ध्यान शतक ४७-४८-४९) इसलिए ऐसे आप्त (विश्वस्त) पुरुष द्वारा कथित होने से श्रद्धा रहित शंका करना उचित नहीं है। उनके वचन तो सर्वथा सत्य है, परंतु मेरी बुद्धिमंदता या अज्ञानता के कारण समझ में नहीं आ रहे हैं, तो मुझे धैर्य के साथ श्रद्धा पूर्वक उस सत्य को मान लेना चहिए। क्योंकि आगम से जाने जा सकें ऐसे पदार्थ की हम सरीखे सामान्य व्यक्ति परीक्षा नहीं कर सकते। इसलिए आगमोक्त अक्षर (सत्य) के प्रति हमें अश्रद्धा नहीं लानी चाहिए, अश्रद्धा से ही व्यक्ति मिथ्यादृष्टि बनता है। अतः जिनोक्त शास्त्र हमारे लिये प्रमाण है।
कांक्षा - किसी के आडंबर या प्रलोभन से आकृष्ट होकर उस दर्शन को स्वीकार करने की इच्छा करना कांक्षा कहलाती है। यह भी देश और सर्व के भेद से दो प्रकार की है। सर्वविषयक कांक्षा है-सभी मतों या धर्म-समुदायों की कांक्षा होना। देशकांक्षा है-किसी एक मत, पंथ या संप्रदाय विषयक कांक्षा होना; उदाहरण के तौर पर-'कोई यह कहे कि सुगत ने भिक्षुओं के लिए कष्ट रहित धर्म का उपदेश दिया है। वहां तो भिक्षुओं के लिए स्नान है, प्रिय स्वादिष्ट भोजन, पान व बढ़िया वस्त्र विहित है, गुदगुदी कोमल शय्या का विधान है। इस तरह सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं का उपभोग बताकर धर्ममार्ग सर्व सुलभ बना दिया है। उनके किसी धर्मग्रंथ में कहा है- 'कोमल शय्या पर शयन करना, सुबह उठते ही मधुर पेय पीना, मध्याह्न में स्वादिष्ट भोजन करना, शाम को फिर पेय पीना और मध्यरात्रि में द्राक्षा और शक्कर का आहार करना, इन सबके परिणाम स्वरूप शाक्यसिंह ने मोक्ष देखा है।' यह बात सर्व साधारण के अनुकूल होने से झटपट उस तरफ झुकाव हो जाता है। परिवाज्रक, भौत, ब्राह्मण आदि के मत में बताया है कि 'यहां विषयसुख का आस्वादन करने वाले ही परलोक में सुखोपभोग करते हैं।' इसलिए इस मत की साधना भी करके देखनी चाहिए। इस प्रकार की कांक्षा वीतराग-प्रभु के बताये हुए आगों में अविश्वास की जननी होने से सम्यक्त्व को दूषित करती है।
विचिकित्सा - धर्माचरण के फल में संदेह रखना विचिकित्सा है। चित्त की अस्थिरता से, आगमोक्त महातप, सम्यक्-चारित्र, सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान की साधना; तो बहुत ही रूक्ष, बालू के कौर के समान स्वाद रहित और नीरस है, पता नहीं, इतना सब महाकष्टों के सहने के बाद भी इनका फल मिलेगा या नहीं? ओफ! यह तप तो बहुत 1. दुष्यन्त्यमी इति पाठान्तरम्
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