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९८ भाइयों की दीक्षा
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १०
प्रतिभासित हो रहा था, उनसे यह बात कब छिपी रह सकती थी । अतः कृपानाथ श्रीआदीश्वर भगवान् ने पुत्रों को | संबोधित करते हुए कहा - ' - 'पुत्रो ! मैं तुम्हारे लिये अद्भुत अध्यात्मराज्यलक्ष्मी लाया हूँ। भौतिक राज्यलक्ष्मी तो चंचल है और अहंकार पैदा करने वाली है। अंत में अपने अनर्थकर स्वभाव के कारण वह राज्यकर्ता को नरक में ले जाती | है। यह जन्म-मरण का चक्र बढ़ाने वाली है। भौतिक-राज्यलक्ष्मी पाकर भी कदाचित् स्वर्ग सुख मिल जाय तो भी उस सुख की तृष्णा बढ़ती रहेगी और जैसे अंगारदाहक की प्यास शांत न हुई, वैसे अगले जन्म में भी भोगलिप्सा शांत नहीं होगी ; स्वर्ग के सुख से यदि तृष्णा अगले भव में शांत नहीं हुई तो वह तृष्णा अंगारदाहक के समान मनुष्य के | भोग से कैसे शांत हो सकती है?
अंगारदाहक का दृष्टांत :
अंगारदाहक नाम का एक मूर्ख तालाब से पानी की मशक भरकर कोयले बनाने के लिए निर्जन जंगल में गया। | अग्नि का ताप और तपती दुपहरी के सूर्य की चिलचिलाती धूप से उसकी प्यास दुगुनी हो उठी। इस कारण वहाँ मशक की थैली में जितना पानी था, उतना पी गया। फिर भी उसकी प्यास शांत नहीं हुई; तब वह सो गया। उसे एक स्वप्न | दिखायी दिया, जिसमें उसने देखा कि वह घर गया और घर में रखे हुए घड़ों, मटकों और पानी के भरे बर्तनों का सारा पानी पी गया। जैसे तेल से आग शांत नहीं होती, वैसे ही इतना पानी पी जाने पर भी उसकी प्यास कम न हुई । तब उसने बावड़ी, कुएँ, तालाब आदि का पानी पीकर उन्हें खाली कर दिया। फिर भी वह तृप्त न हुआ। अतः वह नदी | पर गया; समुद्र पर गया, उसका पानी भी पी गया; फिर भी नारकीय जीव की वेदना की तरह उसकी प्यास कम नहीं | हुई। बाद में वह जिस जलाशय को देखता, उसी का पानी पीकर उसे खाली कर देता । फिर वह मारवाड़ के कुएँ का | पानी पीने के लिए पहुँचा । उसने कुएँ से पानी निकालने के लिए रस्सी के साथ घास का एक पूला बांधा और उसे कुएँ में उतारा। परेशान मनुष्य क्या नहीं करता?' मारवाड़ के कुएँ का पानी गहरा था और गहराई से बहुत नीचे से पानी खींचने के कारण बहुत-सा पानी तो ऊपर आते-आते निचुड़ जाता था। फिर भी वह पूले के तिनकों पर लगे | जलबिन्दुओं को निचोड़कर पीने लगा। जिसकी प्यास समुद्र के जल से भी शांत नहीं हुई; वह भला पूले के पानी से कैसे शांत होती? मतलब यह है कि उसकी प्यास किसी भी तरह से नहीं बुझी ।
इसी तरह जिसे स्वर्ग के सुख से शांति नहीं हुई, उसकी तृष्णा राज्य लक्ष्मी के ले लेने से कैसे शांत हो जायेगी? | अतः वत्सो! आनंदरस देने वाला और निर्वाण प्राप्ति का कारण रूपी संयम साम्राज्य प्राप्त करना ही तुम जैसे विवेकियों के लिए उचित है।' इस प्रकार प्रभु का वैराग्यमय उपदेश सुनकर उन ९८ भाईयों को भी उसी समय वैराग्य हो जाने | से उन्होंने भगवान् के पास दीक्षा धारण की। उधर दूत उन ९८ भाईयों के धैर्य, सत्य और वैराग्यवृद्धि की मन ही मन | प्रशंसा करता हुआ भरतनरेश के पास पहुंचा। उनसे ९८ भाईयों की सारी बातें निवेदन की। उसे सुनकर भरतनृप ने उन | ९८ भाईयों का राज्य अपने अधिकार में कर लिया। सच है, लाभ ( धनप्राप्ति) से लोभ बढ़ता जाता है। राजनीती में सदा | से ही प्रायः ऐसा होता आया है।
सेनापति ने व्याकुल होकर भरतचक्रवर्ती से सविनय निवेदन किया- 'चक्रीश ! अभी तक आप की आयुधशाला में चक्ररत्न प्रवेश नहीं कर रहा है। इसलिए मालूम होता है कि कोई न कोई ऐसा राजा बचा है, जो आपकी आज्ञाधीनता | स्वीकार नहीं करता। और जब तक सभी राजा आपकी आज्ञाधीनता स्वीकार न करें तब तक चक्रवर्तित्व के लिए, | आपकी दिग्विजय अधूरी है।' भरत ने इसके उत्तर में कहा है 'हाँ! मैं जानता हूं कि लोकोत्तर - पराक्रमी महाबाहु | महाबलशाली मेरे लघुबंधु बाहुबलि को जीतना अभी बाकी है। मेरी स्थिति इस समय उस व्यक्ति की - सी बनी हुई है, जिसके एक ओर गरुड़ हो और दूसरी ओर सर्पों का झुंड । मैं जानता हूं कि बाहुबलि सिंह के समान अकेला ही हजारों | व्यक्तियों को परास्त कर सकता है; क्योंकि जैसा पराक्रम अकेला सिंह दिखलाता है, वैसा पराक्रम हजारों हिरण मिलकर भी नहीं दिखला सकते। एकाकी अजेय बाहुबलि को जीतने में प्रतिमल्ल या देव, दानव या मानव समर्थ नहीं है। मेरे | सामने बहुत बड़ा धर्मसंकट पैदा हो गया है। एक ओर मैं चक्रवर्ती बनना चाहता हूँ, लेकिन मेरी आयुध - शाला में | चक्ररत्न प्रवेश नहीं कर रहा है, दूसरी ओर बाहुबलि किसी की आज्ञाधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं है। क्या
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