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अष्ट प्रवचन माता का स्वरूप
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ४२ से ४४ के तीन विशेषण बताकर कहते हैं कि 'आर्त्त - रौद्र - ध्यान से मन को मुक्त करके आत्म स्वरूप में उसे स्थापित करना और आत्मगुणों में रमण करना ही मनोनिग्रह के वास्तविक उपाय हैं। इन्हें ही मनोगुप्ति कहा है । । ४१ ।।
अवाप्ति का निरुपण करते हैं
।४२। सञ्ज्ञादि- परिहारेण, यन्मौनस्यावलम्बनम् । वाग्वृत्तेः संवृतिर्वा या, सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ॥ ४२ ॥ अर्थ :संज्ञादि ( इशारे आदि) का त्याग करके मौन का आलंबन करना अथवा वचन की प्रवृत्तियों को रोकना या सम्यग् वचन की ही प्रवृत्ति करना, वचनगुप्ति कहलाती है ।। ४२ ।।
व्याख्या : - संज्ञा का अर्थ है - दूसरों को अभिप्राय सूचित करने हेतु मुख, नेत्र, भृकुटि चढ़ाने, अंगुली से बताने या चुटकी बजाने की चेष्टा करना; आदि शब्द से कंकड़ फेंकना, उच्च स्वर से खांसना, हुं शब्द प्रकट करना इत्यादि | चेष्टाएँ भी संज्ञा के अंतर्गत समझना । इन सब संज्ञाओं का त्याग करके, बोलने की क्रिया बंद करके मौन धारण करना | अथवा वाणी की प्रवृत्ति को रोकना या कम करना तथा वैसा अभिग्रह करना वचन- गुप्ति है । यदि मौनावलंबी साधक संज्ञा आदि से अपना अभिप्राय सूचित करता है; तो उसका मौन निष्फल हो जाता है। हां, आगम-सूत्रादि की वाचना देनी हो, तत्सबंधी शंका पूछनी हो अथवा शंका का उत्तर देना हो तो उस वाग्गुप्ति में लोक या आगम से विरोध नहीं | आता। इसी तरह मुख के आगे मुहपत्ति रखकर बोलना अथवा वाणी पर नियंत्रण करना भी वाग्गुप्ति का, दूसरा प्रकार है। इन दोनों प्रकारों से दूषित वाणी के सर्वथा निरोध का, दूषित वाणी से वागिन्द्रिय की रक्षा करने का अथवा मौन रखने का, इन तीनों रूपों का प्रतिपादन किया है। भाषासमिति सम्यक् प्रकार से बोलना है और वाग्गुप्ति वाणी की दूषणों | से सम्यक् प्रकार से रक्षा करना है। इस तरह वाग्गुप्ति और भाषा समिति में इतना सा भेद है। इसलिए कहा है कि'समिति वाला निश्चय ही गुप्ति वाला होता है; किन्तु गुप्ति वाला समिति वाला होता भी है और नहीं भी ( भजना वाला) होता है। कुशल वाणी को बोलते समय साधक वाग्गुप्ति और भाषासमिति दोनों से युक्त होता है। (बृ. क. भा. | ४४५१) ।। ४२ ।।
।४३। उपसर्ग-प्रसङ्गेऽपि, कायोत्सर्गजुषो मुनेः । स्थिरीभावः शरीरस्य कायगुप्तिर्निगद्यते ॥ ४३ ॥
अर्थ
;- कायोत्सर्ग (ध्यान) से युक्त मुनि के द्वारा उपसर्ग के प्रसंग में भी शरीर को स्थिर या निश्चल रखना कायगुस ( प्रथम ) कहलाती है ।। ४३ ।।
व्याख्या : - देवता, मनुष्य और तिर्यंचों द्वारा किये गये उपद्रव उपसर्ग कहलाते हैं। यहां 'अपि' शब्द से उपलक्षण से क्षुधा, तृषा आदि बाईस परिषहों या दुष्कर्मोदय-जनित संकटों या अभावों को भी समझ लेना चाहिए। फलितार्थ यह कि इन सब उपसर्ग आदि प्रसंगों पर मुनि द्वारा काया के प्रति निरपेक्ष होकर उसे निश्चल या स्थिर रखना अथवा | योगों की चपलता का निरोध करना काया गुप्ति कहलाती है ।। ४३ ।।
हुआ
अब दूसरी कायगुप्ति का निरूपण करते हैं
। ४४ । शयनासन-निक्षेपादान - चङ्क्रमणेषु यः । स्थानेषु चेष्टानियमः, कायगुप्तिस्तु साऽपरा ॥४४॥ सोना, बैठना, रखना, लेना और चलना आदि कार्यों की क्रियाओं या चेष्टाओं पर नियंत्रण ( नियमन ) रखना व स्वच्छंद प्रवृत्ति का त्याग करना, दूसरे प्रकार की कायगुप्ति है ।। ४४ ।।
अर्थ :
व्याख्या : - आगम में रात को ही निद्रा-काल बताया गया है। इस दृष्टि से साधु को मुख्यतया दिन में शयन करने | का निषेध किया है। बीमारी, अशक्ति या विहार की थकावट अथवा वृद्धावस्था आदि के सिवाय साधक को दिन में सोना नहीं चाहिए। रात को भी एक प्रहर बीत जाने के बाद, गुरुमहाराज के सो जाने पर सीमित (अपने कद के अनुसार | मर्यादित) जगह देखकर जमीन को पूंजकर संस्तारक ( बिछाने का आसन) और उत्तरपट्टा खोलकर और बिछाकर काया का सिर से पैर तक ( ऊपर से नीचे तक) मुखवस्त्रिका, प्रमार्जनिका एवं रजोहरण से प्रमार्जन कर संस्तारक ( बिछौना ) | करने के लिए गुरुमहाराज की आज्ञा लेकर, नमस्कारमंत्र और सामायिक सूत्र (करेमि भंते सामाइयं) पढ़कर, दाहिने हाथ का तकिया बनाकर, पैरों को सिकोड़कर अथवा मुर्गे के समान आकाश में पैर रखकर प्रमार्जन करके फिर भूमि पर रखें। | फिर संकोच करने के समय प्रमार्जनिका से या रजोहरण की कलियों से प्रमार्जना करे और करवट लेते समय मुखवस्त्रिका
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