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कुदेवादि को मानने से हानि
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १२ से १४ अर्थ :- पुरुष के बिना कोई भी वचन संभव नहीं होता, यानी असंभव माना जाता है। कदाचित् ऐसा वचन हो
तो भी वह प्रमाण रूप नहीं है। क्योंकि वचनों की प्रामाणिकता यथार्थ वक्ता-आसपुरुष के अधीन
है।।१२।। व्याख्या :- किसी पुरुष के द्वारा कहा हुआ वचन पौरुषेय वचन कहलाता है। कंठ, तालु आदि स्थानों एवं कारणों के आघात पूर्वक जो बोला जाय, वह वचन कहलाता है। इसलिए जो भी वचन होगा वह पौरुषेय-पुरुष-प्रयत्न कृत होगा। अपौरुषेय वचन परस्पर विरुद्ध, आकाशकुसुम (या नभत्रसरेणु) के समान असंभव है तथा यह किसी प्रमाण से | भी सिद्ध नहीं होता और न ही उसे अमूर्त कहकर अदृश्य कहा जा सकता है। क्योंकि शब्द तो मूर्त है, उन्हें मूर्त और शरीरधारी ही कह सकेगा; अशरीरी या अमूर्त नहीं। हाथ से ताली बजाने के शब्द की तरह शब्द-श्रवण को ही यदि प्रमाण मानते हो तो यह कथन भी यथार्थ नहीं है। क्योंकि ताली बजाने या चुटकी बजाने आदि से शब्द की उत्पत्ति मानने पर तो उल्टा अपौरुषेय दोष आता है। एक शब्द के लिए ही जब कंठ, तालु आदि स्थान, करण एवं अभिघात की आवश्यकता महसूस होती है, तब उसके जैसे अन्य अनेक शब्दों को प्रकट करने के लिए भी स्थान, करण आदि | की आवश्यकता पड़ेगी। और फिर व्यंग्यशब्दों में भले ही स्थान आदि नहीं दिखाई देते हों, लेकिन शब्दों को अपौरुषेय
उनकी प्रतिनियम व्यंजक-व्यंग्यता कैसे संभव होगी। किसी गहस्थ के घर में दही और घड़े के देखने के लिए दीपक जलाया तो वह दही आदि की तरह रोटी को भी बता देता है। इसलिए पूर्वोक्त युक्ति से वचन का अपौरुषेय सिद्ध नहीं होता। (न्याय मं. पृ. १९५) यदि अप्रमाणिकता की आदत के बल पर वचन को आकाशकुसुम आदि के समान अपौरुषेय मान भी लें तो भी वह प्रमाणभूत नहीं माना जायेगा; क्योंकि आप्तपुरुष के मुख से निकले हुए वचन ही प्रमाणभूत माने जाते हैं; अन्य वचन नहीं। चूंकि शब्द में गुण पैदा करना तो बोलने वाले के अधीन होता है। किसी दोष युक्त वक्ता के शब्दों में गुणों का संक्रमण (आरोपण) कैसे हो सकता है? ऐसे शब्दों की कोई प्रतीति नहीं होती; जिनका कोई कहने वाला न हो अथवा किसी कहने वाले के न होने से शब्दों में भी आश्रय के बिना गुण रह नहीं सकते।
तथा इन वचनों में गुण है या नहीं? इसका निश्चय भी पौरुषेय वचनों से ही किया जा सकता है। वेदवचन | पुरुष कर्ता के न होने से उनमें गुण है या नहीं, ऐसी शंका नहीं होती।।१२।।
इस प्रकार अपौरुषेय कथन की असंभावना बताकर विविध युक्तियों से उसके अभाव का प्रतिपादन करने के बाद अब असर्वज्ञ पुरुष के द्वारा कथित धर्म की अप्रमाणिकता बताते हैं।६९। मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो, हिंसाद्यैः कलुषीकृतः । स धर्म इति वित्तोऽपि, भवभ्रमणकारणम् ॥१३।। अर्थ :- मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्रतिपादित तथा हिंसा आदि दोषों से दूषित धर्म संसार में धर्म के रूप में प्रसिद्ध होने |
पर भी वह संसार-परिभ्रमण का कारण है ।।१३।। व्याख्या :- रुद्र, दैत्यारि, विरंचि, कपिल, सुगत आदि विपरीत (एकांतवाद के कारण दुषित) दष्टि वालों से प्रतिपादित और भोले-भाले मंदबद्धि लोगों द्वारा स्वीकृत धर्म, चाहे दुनिया में प्रसिद्ध हो गया हो, फिर भी चतुर्गतिक संसार में जन्म-मरण का कारण होने से एक तरह से अधर्म ही है। वह क्यों और कैसे? इसके उत्तर में कहते हैं कि वह धर्म हिंसा आदि दोषों से दूषित है। और मिथ्यादृष्टिप्रणीत शास्त्र प्रायः हिंसादि दोषों से दूषित है ।।१३।।
___ अब कुदेव, कुगुरु और कुधर्म की भर्त्सना करते हुए उनके मानने से हानि का प्रतिपादन करते हैं।।७०। सरागोऽपि हि देवश्चेद्, गुरुरब्रह्मचार्यपि। कृपाहीनोऽपि धर्मः, स्यात् कष्टं नष्टं हहा! जगत्॥१४॥ अर्थ :- देव यदि सरागी हो, धर्मगुरु अब्रह्मचारी हो और दयारहित धर्म को अगर धर्म कहा जाय तो, बड़ा
अफसोस है! इनसे ही तो संसार की लुटिया डूबी है ॥१४॥ व्याख्या :- राग, द्वेष और मोह से युक्त देव हो, प्राणातिपात आदि पांच महापापों का सेवन करने वाले अब्रह्मचारी | गुरु हों, दयारहित एवं मूलगुण-उत्तरगुण रहित धर्म का ही संसार में बोलबाला हो; इसे देखकर हमें अपार खेद होता है! अफसोस है कि ऐसे देव, गुरु और धर्म के कारण दुर्गतिगमन बढ़ जाने के कारण जगत् विनाश के गर्त में चला जा रहा है। किसी ने कहा है-यदि आराध्य माने जाने वाले देव ही रागी-द्वेषी हों; या शून्यवादी हो, मदिरा पीना, मांस खाना और जीव हिंसा करना ही धर्म हो, तथा तथाकथित धर्मगुरु ही विषयों में आसक्त हों, काम में मत्त हों, कांता
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